तुम्हें अपने कृत्यों, अपने संबंधों, अपनी भावदशाओं के प्रति सजगता से जागरूक होना है: जब
तुम अकेले हो तो तुम्हारा व्यवहार कैसा है, जब लोगों के साथ हो तो कैसे व्यवहार करते हो,
कैसी होती है तुम्हारी प्रतिक्रिया; क्या तुम्हारी प्रतिक्रिया अतीत से प्रेरित होती है और
तुम्हारे विचार जड़ ढांचे से निकलते हैं या कि तुम सहज होते हो, विश्वसनीय होते
हो। इन सब बातों के लिये जागरूक हो जाओ; अपने मन, अपने हृदय के बारे में
जागरूक हो जाओ। यही सब समझने योग्य है, यही वो पुस्तक है जिसे
खोलना है; अन्यथा तुम एक बंद किताब हो।"
ओशो
SUNDAR
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
सुन्दर लेखन ।
बिल्कुल सही कहा।
कई बार सोचता हूं कि ओशो गैर ज़रूरी है हर बार गलत साबित होता हूं
मेरा एक मित्र काफ़ी घर में यही तो कह रहा था
ताज़ा-पोस्ट ब्लाग4वार्ता
एक नज़र इधर भी मिसफ़िट:सीधी बात
बच्चन जी कृति मधुबाला पर संक्षिप्त चर्चा
ham bhi yahaan isliye hain ki aap khud ko samjh sakein...
सही सोच।
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मन की गति से सफर...
बूझो मेरे भाई, वृक्ष पहेली आई।
bahut hi badhiya
pranam
hmmm..............