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ओशो का एक प्रवचन जो उन्होंने लगभग ३० वर्षो पहले दिया था। समय गुजर गया पर उनके कहे
गए ये शब्द आज भी पूरी तरह से सत्य है ।
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और दूसरी बात राजनीति कोई जीवन का ऐसा अलग हिस्सा नहीं है, जो धर्म से भिन्न हो, साहित्य से भिन्न हो, कला से भिन्न हो। हमने जीवन को खंडों में तोड़ा है सिर्फ सुविधा के लिए। जीवन इकट्ठा है। तो राजनीति अकेली राजनीति ही नहीं है, उसमें जीवन के सब पहलू और सब धाराएँ जुड़ी हैं। और जो आज का है, वह भी सिर्फ आज का नहीं है, सारे कल उसमें समाविष्ट हैं। यह प्राथमिक रूप से खयाल में हो तो मेरी बातें समझने में सुविधा पड़ेगी।
यह मैं क्यों बीते कलों पर इसलिए जोर देना चाहता हूं कि भारत की आज की राजनीति में जो उलझाव है, उसका गहरा संबंध हमारी अतीत की समस्त राजनीतिक दृष्टि से जुड़ा है।
जैसे, भारत का पूरा अतीत इतिहास और भारत का पूरा चिंतन राजनीति के प्रति वैराग सिखाता है। अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, यह भारत की शिक्षा रही है। और जिस देश का यह खयाल हो कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, अगर उसकी राजधानियों में सब बुरे आदमी इकट्ठे हो जायें, तो आश्चर्य नहीं है। जब हम ऐसा मानते हैं कि अच्छे आदमी का राजनीति में जाना बुरा है, तो बुरे आदमी का राजनीति में जाना अच्छा हो जाता है। वह उसका दूसरा पहलू है।
हिंदुस्तान की सारी राजनीति धीरे-धीरे बुरे आदमी के हाथ में चली गयी है; जा रही है, चली जा रही। आज जिनके बीच संघर्ष नहीं है, वह अच्छे और बुरे आदमी के बीच संघर्ष है। इसे ठीक से समझ लेना ज़रूरी है। उस संघर्ष में कोई भी जीते, उससे हिंदुस्तान का बहुत भला नहीं होनेवाला है। कौन जीतता है, यह बिलकुल गौण बात है। दिल्ली में कौन ताकत में आ जाता है, यह बिलकुल दो कौड़ी की बात है; क्योंकि संघर्ष बुरे आदमियों के गिरोह के बीच है।
हिंदुस्तान का अच्छा आदमी राजनीति से दूर खड़े होने की पुरानी आदत से मजबूर है। वह दूर ही खड़ा हुआ है। लेकिन इसके पीछे हमारे पूरे अतीत की धारणा है। हमारी मान्यता यह रही है कि अच्छे आदमी को राजनीति से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। बर्ट्रेड रसल ने कहीं लिखा है, एक छोटा-सा लेख लिखा है। उस लेख का शीर्षक—उसका हैडिंग मुझे पसंद पड़ा। हैडिंग है, ‘दी हार्म, दैट गुड मैन डू’—नुकसान, जो अच्छे आदमी पहुँचाते हैं।
अच्छे आदमी सबसे बड़ा नुकसान यह पहुँचाते हैं कि बुरे आदमी के लिए जगह खाली कर देते हैं। इससे बड़ा नुकसान अच्छा आदमी और कोई पहुंचा भी नहीं सकता। हिंदुस्तान में सब अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। ‘एस्केपिस्ट’ रहे हैं। भागनेवाले रहे हैं. हिंदुस्तान ने उनको ही आदर दिया है, जो भाग जायें। हिंदुस्तान उनको आदर नहीं देता, जो जीवन की सघनता में खड़े हैं, जो संघर्ष करें, जीवन को बदलने की कोशिश करें।
कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्ध ने राज्य न छोड़ा होता, तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ है। आज तय करना भी मुश्किल है। लेकिन यह परंपरा है हमारी, कि अच्छा आदमी हट जाये। लेकिन हम कभी नहीं सोचते, कि अच्छा आदमी हटेगा, तो जगह खाली तो नहीं रहती, ‘वैक्यूम’ तो रहता नहीं।
अच्छा हटता है, बुरा उसकी जगह भर देता है। बुरे आदमी भारत की राजनीति में तीव्र संलग्नता से उत्सुक हैं।
कुछ अच्छे आदमी भारत की आजादी के आंदोलन में उत्सुक हुए थे। वे राजनीति में उत्सुक नहीं थे। वे आजादी में उत्सुक थे। आजादी आ गयी। कुछ अच्छे आदमी अलग हो गये, कुछ अच्छे आदमी समाप्त हो गये, कुछ अच्छे आदमियों को अलग हो जाना पड़ा, कुछ अच्छे आदमियों ने सोचा, कि अब बात खत्म हो गयी।
खुद गांधी जैसे भले आदमी ने सोचा कि अब क्रांग्रेस का काम पूरा हो गया है, अब कांग्रेस को विदा हो जाना चाहिए। अगर गांधीजी की बात मान ली गई होती, तो मुल्क इतने बड़े गड्ढे में पहुंचता, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
बात नहीं मानी गयी, तो भी मु्ल्क गढ्ढे में पहुँचा है, लेकिन उतने बड़े गड्ढे में नहीं, जितना मानकर पहुंच जाता। फिर भी गांधीजी के पीछे अच्छे लोगों की जो जमात थी, विनोबा और लोगों की, सब दूर हट गये। वह पुरानी भारतीय धारा फिर उनके मन को पकड़ गयी, कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं होना चाहिए।
खुद गांधीजी ने जीवन भर बड़ी हिम्मत से, बड़ी कुशलता से भारत की आजादी का संघर्ष किया। उसे सफलता तक पहुंचाया। लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आयी, गांधीजी हट गये। वह भारत का पुराना अच्छा आदमी फिर मजबूत हो गया। गांधी ने अपने हाथ में सत्ता नहीं ली, यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
जिसे हम हजारों साल तक, जिसका नुकसान हमें भुगतना पड़ेगा। गांधी सत्ता आते ही हट गये। सत्ता दूसरे लोगों के हाथ में गयी। जिनके हाथ में सत्ता गयी, वे गांधी जैसे लोग नहीं थे। गांधी से कुछ संभावना हो सकती थी कि भारत की राजनीति में अच्छा आदमी उत्सुक होता। गांधी के हट जाने से वह संभावना भी समाप्त हो गयी।
फिर सत्ता के आते ही एक दौड़ शुरू हुई। बुरे आदमी की सबसे बड़ी दौड़ क्या है ? बुरा आदमी चाहता क्या है ? बुरे आदमी की गहरी से गहरी आकांक्षा अहंकार की तृप्ति है ‘इगो’ की तृप्ति है। बुरा आदमी चाहता है, उसका अहंकार तृप्त हो और क्यों बुरा आदमी चाहता है कि उसका अहंकार तृप्त हो ?
क्योंकि बुरे आदमी के पीछे एक ‘इनफीरियारिटी काम्प्लेक्स’, एक हीनता की ग्रंथि काम करती रहती है। जितना आदमी बुरा होता है, उतनी ही हीनता की ग्रंथि ज्यादा होती है। और ध्यान रहे, हीनता की ग्रंथि जिसके भीतर हो, वह पदों के प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। सत्ता के प्रति, ‘पावर’ के प्रति बहुत लोलुप हो जाता है। भीतर की हीनता को वह बाहर के पद से पूरा करना चाहता है।
बुरे आदमी को मैं, शराब पीता हो, इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं। शराब न पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं। बुरा आदमी इसलिए नहीं कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला, अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों से टिका रहनेवाला भी बुरा हो सकता है।
मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं, जिसकी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर ‘इनफीरियारिटी’ का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा। और किसी को भी हटा देने के लिए, कोई भी साधन उसे सही मालूम पड़ेंगे।
हिंदुस्तान में अच्छा आदमी—अच्छा आदमी वही है, जो न ‘इनफीरियारिटी’ से पीड़ित है और न ‘सुपीरियरिटी’ से पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है, ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है। आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है, और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे कोई अड़चन, कोई तकलीफ नहीं है। जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है।
ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाये तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाये, तो राजनीति केवल ‘पावर पालिटिक्स’, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड हो जाती है। और शराब से कोई आदमी इतना बेहोश कभी नहीं हुआ, जितना आदमी सत्ता से और ‘पावर’ से बेहोश हो सकता है। और जब बेहोश लोग इकट्ठे हो जायें सब तरफ से, तो सारे मुल्क की नैया डगमगा जाये इसमें कुछ हैरानी नहीं है ?
यह ऐसे ही है—जैसे किसी जहाज के सभी मल्लाह शराब पी लें, और आपस में लड़ने लगें प्रधान होने को ! और जहाज उपेक्षित हो जाये, डूबे या मरे, इससे कोई संबंध न रह जाये, वैसी हालत भारत की है।
राजधानी भारत के सारे के सारे मदांध, जिन्हें सत्ता के सिवाय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा है, वे सारे अंधे लोग इकट्ठे हो गये हैं।
और उनकी जो शतरंज चल रही ही, उस पर पूरा मुल्क दांव पर लगा हुआ है। पूरे मुल्क से उनको कोई प्रयोजन नहीं है, कोई संबंध नहीं है। भाषण में वे बातें करते हैं, क्योंकि बातें करनी जरूरी हैं। प्रयोजन बताना पड़ता है। लेकिन पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। पीछे एक ही प्रयोजन है भारत के राजनीतिज्ञ के मन में, कि मैं सत्ता में कैसे पहुंच जाऊं ? मैं कैसे मालिक हो जाऊं ? मैं कैसे नंबर एक हो जाऊं ? यह दौड़ इतनी भारी है,
और यह दौड़ इतनी अंधी है कि इस दौड़ के अंधे और भारी और खतरनाक होने का बुनियादी कारण यह है कि
भारत की पूरी परंपरा अच्छे आदमी को राजनीति से दूर करती रही है।
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ओशो वास्तव में एक सही आदमी थे जो सत्य को सत्य कहने का शाहस रखते थे
Badhiya lekh .. aaj ke netao ki sahi jankari deta aalekh
सत्य वचन ... शत शत नमन ओशो जैसे शिखर पुरुष को
आज की राजनीति को आइना दिखता लेख ..
सच में ऐसी बात सिर्फ ओशो ही कह सकते है
ओशो के कहे शब्दों के विषय में कुछ भी कहना सूरज को आइना दिखाने के बराबर है ... बढ़िया प्रवचन
सम्बुद्ध सद्गुरु ओशो के चरणों में श्रद्धा सुमन!!
सही कहा है ओशो जी ने . उनका हर वचन सत्य है.
जैसे किसी जहाज के सभी मल्लाह शराब पी लें, और आपस में लड़ने लगें प्रधान होने को ! और जहाज उपेक्षित हो जाये, डूबे या मरे, इससे कोई संबंध न रह जाये, वैसी हालत भारत की है।
राजनीति अकेली राजनीति ही नहीं है, उसमें जीवन के सब पहलू और सब धाराएँ जुड़ी हैं
भारत की आज की राजनीति में जो उलझाव है, उसका गहरा संबंध हमारी अतीत की समस्त राजनीतिक दृष्टि से जुड़ा है।
अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, यह भारत की शिक्षा रही है। और जिस देश का यह खयाल हो कि अच्छे आदमी को राजनीति में नहीं जाना है, अगर उसकी राजधानियों में सब बुरे आदमी इकट्ठे हो जायें, तो आश्चर्य नहीं है।
जब हम ऐसा मानते हैं कि अच्छे आदमी का राजनीति में जाना बुरा है, तो बुरे आदमी का राजनीति में जाना अच्छा हो जाता है। वह उसका दूसरा पहलू है।
अच्छे और बुरे आदमी के बीच संघर्ष है। इसे ठीक से समझ लेना ज़रूरी है। उस संघर्ष में कोई भी जीते, उससे हिंदुस्तान का बहुत भला नहीं होनेवाला है। कौन जीतता है, यह बिलकुल गौण बात है। दिल्ली में कौन ताकत में आ जाता है, यह बिलकुल दो कौड़ी की बात है; क्योंकि संघर्ष बुरे आदमियों के गिरोह के बीच है।
हिंदुस्तान का अच्छा आदमी राजनीति से दूर खड़े होने की पुरानी आदत से मजबूर है। वह दूर ही खड़ा हुआ है। लेकिन इसके पीछे हमारे पूरे अतीत की धारणा है। हमारी मान्यता यह रही है कि अच्छे आदमी को राजनीति से कोई संबंध नहीं होना चाहिए।
हिंदुस्तान में सब अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। ‘एस्केपिस्ट’ रहे हैं। भागनेवाले रहे हैं. हिंदुस्तान ने उनको ही आदर दिया है, जो भाग जायें। हिंदुस्तान उनको आदर नहीं देता, जो जीवन की सघनता में खड़े हैं, जो संघर्ष करें, जीवन को बदलने की कोशिश करें।
कुछ अच्छे आदमी भारत की आजादी के आंदोलन में उत्सुक हुए थे। वे राजनीति में उत्सुक नहीं थे। वे आजादी में उत्सुक थे। आजादी आ गयी। कुछ अच्छे आदमी अलग हो गये, कुछ अच्छे आदमी समाप्त हो गये, कुछ अच्छे आदमियों को अलग हो जाना पड़ा, कुछ अच्छे आदमियों ने सोचा, कि अब बात खत्म हो गयी।
खुद गांधीजी ने जीवन भर बड़ी हिम्मत से, बड़ी कुशलता से भारत की आजादी का संघर्ष किया। उसे सफलता तक पहुंचाया। लेकिन जैसे ही सत्ता हाथ में आयी, गांधीजी हट गये। वह भारत का पुराना अच्छा आदमी फिर मजबूत हो गया। गांधी ने अपने हाथ में सत्ता नहीं ली, यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं, जिसकी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर ‘इनफीरियारिटी’ का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा।
ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाये तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाये, तो राजनीति केवल ‘पावर पालिटिक्स’, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड हो जाती है। और शराब से कोई आदमी इतना बेहोश कभी नहीं हुआ, जितना आदमी सत्ता से और ‘पावर’ से बेहोश हो सकता है। और जब बेहोश लोग इकट्ठे हो जायें सब तरफ से, तो सारे मुल्क की नैया डगमगा जाये इसमें कुछ हैरानी नहीं है ?
अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है, ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है। आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है, और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे कोई अड़चन, कोई तकलीफ नहीं है। जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है।
ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाये तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में न जाये, तो राजनीति केवल ‘पावर पालिटिक्स’, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड हो जाती है। और शराब से कोई आदमी इतना बेहोश कभी नहीं हुआ, जितना आदमी सत्ता से और ‘पावर’ से बेहोश हो सकता है। और जब बेहोश लोग इकट्ठे हो जायें सब तरफ से, तो सारे मुल्क की नैया डगमगा जाये इसमें कुछ हैरानी नहीं है ?
यह ऐसे ही है—जैसे किसी जहाज के सभी मल्लाह शराब पी लें, और आपस में लड़ने लगें प्रधान होने को ! और जहाज उपेक्षित हो जाये, डूबे या मरे, इससे कोई संबंध न रह जाये, वैसी हालत भारत की है।
soooo....praiseworthy
पत्रकारिता के सम्बन्ध में ओशो के विचार
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जीवन का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है जिस पर प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक ओशो रजनीश ने अपने विचार व्यक्त नहीं किये हों.पत्रकारिता भी इनमें से एक रही है.ओशो के अनुसार पत्रकारिता सिर्फ एक व्यवसाय न हो.इसे मनुष्यता के प्रति एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व समझा जाना चाहिए.यह साधारण व्यवसाय नहीं है,यह सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं है.मुनाफे के लिए बहुत-से व्यवसाय पड़े हैं,कम-से-कम पत्रकारिता को अपने मुनाफे के लिए भ्रष्ट मत करो.पत्रकारिता को अपने मुनाफे का बलिदान देने के लिए तैयार होना पड़ेगा,तभी वह लोगों की रूग्ण जरूरतों को ही पूरा नहीं करेगी,बल्कि उनके मौलिक और बुनियादी कारणों को प्रकट कर सकेगी,जो दूर किये जा सकते हैं
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं,एक क्रांति होनी चाहिए.बुनियादी रूप से पत्रकार एक क्रांतिकारी व्यक्ति होता है,जो चाहता है कि यह दुनिया बेहतर हो.वह एक युयुत्स है और उसे सम्यक कारणों के लिए लड़ना है.मैं पत्रकारिता को अन्य व्यवसायों में से एक नहीं मानता.मुनाफा ही कमाना हो तो ढेर सारे व्यवसाय उपलब्ध हैं;कम-से-कम कुछ तो हो जो मुनाफे के उद्देश्य से अछूता रहे.तभी यह संभव होगा कि तुम लोगों को शिक्षित कर सको,जो गलत हैं उनके खिलाफ विद्रोह करने की शिक्षा उन्हें दे सको;जो भी बात विकृति पैदा करती है,उसके खिलाफ उन्हें शिक्षित कर सको.
पत्रकारिता और अन्य समाचार माध्यम इस संसार में एक नई घटना है.इस तरह की कोई प्रणाली गौतम बुद्ध और जीसस के समय नहीं थी.उस वक्त जो दुर्घटनाएं होती थीं,उनका हमें कुछ पता नहीं है,क्योंकि उस समय कोई समाचार माध्यम नहीं था.समाचार माध्यमों के आगमन से बिलकुल ही नई बात पैदा हुई है,जो भी अशुभ है,जो भी बुरा है,जो भी नकारात्मक है-फ़िर वह सच हो अथवा झूठ,वह सनसनीखेज बन जाता है,वह बिकता है.लोगों की उत्सुकता होती है बलात्कार में,हत्या में,रिश्वत में,सब तरह के अपराधी कृत्यों में,दंगे-फसादों में.चूंकि लोग इस तरह के समाचारों की मांग करते हैं इसलिए तुम संसार में जो भी अशुभ घाटा है उसे इकठ्ठा करते हो.
फूलों का विस्मरण हो जाता है, केवल कांटें ही कांटें याद रह जाते हैं-और उनको बड़ा करके दिखाया जाता है.अगर तुम उन्हें खोज नहीं पाते हो तो तुम उन्हें पैदा करते हो क्योंकि अब तुम्हारी एक मात्र समस्या है-बिक्री कैसे हो?अतीत में हमें उन्हीं समाचारों का पता चलता था,जिन्हें शुभ समाचार कहें.शस्त्रों में चोरों या हत्यारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा जाता था.वही एक मात्र साहित्य था.पत्रकारिता ने अपराधियों के महान बनने की सम्भावना का द्वार खोल दिया.
स्वीडन में पिछले दिनों एक घटना घटी.एक आदमी ने एक अजनबी की हत्या कर दी और अदालत में उस हत्यारे ने कहा कि मैं अपना नाम समाचार पत्रों में प्रथम पृष्ठ पर देखना चाहता था.मेरी एकमात्र इच्छा यह थी कि अख़बारों में मैं अपना नाम छपा हुआ देख लूं.मेरी इच्छा पूरी हुई.यह सब गलत बातों पर ध्यान देने के कारण हैं.इसी वजह से एक बड़ा ही विचित्र व्यक्तित्व पैदा हो रहा है.
समाचार माध्यमों को कुछ चीजों का बहिष्कार करना चाहिए.जिनसे परध पैसा होते हैं,लोगों के प्रति अमानवीयता पैदा होती है.लेकिन उनका निषेध करने की बजाय तुम उनसे मुनाफा कमाते तो,उनके बल पर समृद्ध होते हो,बिक्री बढ़ाते हो परन्तु इस बात की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते कि इसके अंतिम परिणाम क्या होंगे?
पुराने अर्थशास्त्र की धारणा थी कि मांग होने पर पूर्ति होती है.लेकिन नवीन अन्वेषण बताते हैं कि जहाँ पूर्ति होती है वहां धीरे-धीरे मांग पैदा हो जाती है.पत्रकारिता को न मात्र लोगों की जरूरतों को पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए बल्कि उसे स्वस्थ पूर्ति भी पैदा करनी चाहिए,जो लोगों में स्वस्थ मांग पैदा करे.लोग विज्ञापन क्यों देते हैं?खासकर अमेरिका में,वह उत्पादन तो दो साल बाद बाजार में आता है और उसका विज्ञापन दो साल पहले शुरू हो जाता है.इस प्रकार पहले पूर्ति होती है,वह पूर्ति मांग पैदा करती है.इसलिए बड़े-बड़े विज्ञापनों की जरूरत होती है.
मैंने पूरे विश्व की यात्रा की है और मैं हैरान हुआ हूँ क़ि यह तथाकथित समाचार माध्यम,अगर उसे कुछ नकारात्मक नहीं मिलता तो वह उसे पैदा करता है.हर प्रकार के झूठ निर्मित किये जाते हैं.वह लोगों के दिमाग में यह ख्याल पैदा नहीं करता क़ि हमारी प्रगति हो रही है;हम विकसित हो रहे हैं;क़ि हमारे भविष्य में इससे बेहतर मनुष्यता होगी.वह सिर्फ यही ख्याल पैदा करती है क़ि रात घनी से घनी होती चली जाएगी.समाचार पत्र,आकाशवाणी के प्रसारणों,दूरदर्शन,फिल्मों पर एक नजर डालें तो ऐसा लगता है क़ि अब नरक की ओर जाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है.
हमारे पाठक भी कुछ कम नहीं हैं.अख़बार में अगर कुछ हिंसा नहीं हुई हो,कहीं कोई आगजनी न हुई हो,कहीं लूटपाट न हुई हो,कोई डाका न पड़ा हो,कोई युद्ध न हुआ हो,कहीं बम न फटा हो तो तुम अख़बार पढ़कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है.क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे?क्या तुम सुबह-सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहों ऐसी घटना हो?कोई समाचार ही नहीं है.तुम्हें लगता है कि अख़बार में जो खर्च किये,वे व्यर्थ गए.अख़बार तुम्हारे लिए ही छपते हैं
इसलिए अख़बार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते.उसे पढने वाला कोई नहीं है,उसमें कोई उत्तेजना नहीं है,उसमें कोई सेंसेशन नहीं है.पत्रकारिता पश्चिम की दें है.पत्रकारिता को स्वयं को पश्चिम से मुक्त करना है और फ़िर अपने को एक प्रमाणिक , मौलिक आकर देना है.यदि तुमने पत्रकारिता को आध्यात्मिक आयाम दिया तो आज नहीं कल पश्चिम तुम्हारा अनुसरण करेगा.क्योंकि वहीँ तीव्र भूख है,गहन प्यास है.
स्वस्थ पत्रकारिता को विकसित करो.ऐसी पत्रकारिता विकसित करो जो मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का पोषण करे-उसका शरीर,उसका मन,उसकी आत्मा को पुष्ट करे;ऐसी पत्रकारिता जो बेहतर मनुष्यता को निर्मित करने में संलग्न हो,सिर्फ घटनाओं के वृतांत इकट्ठे न करे.माना कि नकारात्मकता जीवन का हिस्सा है,मृत्यु जीवन का हिस्सा है,लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें अपनी श्मशान भूमि बीच बाजार में बनानी चाहिए.
तुम अपनी श्मशान भूमि शहर के बाहर बनाते हो,जहाँ सिर्फ एक बार जाते हो और फ़िर वापस नहीं लौटते.इसी कारण नकारात्मकता को मानसिक कुंठा मत बनाओ.नकारात्मकता पर जोर न दो वरन उसकी निंदा करो.यही स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य होना चाहिए.
समय आ गया है.पत्रकारिता एक नए युग का प्रारंभ बन सकती है.राजनीति को जितना पीछे धकेल सकते हो धकेलो.पत्रकारिता में बड़ी-से-बड़ी क्रांति करने की क्षमता है बशर्ते भारत में अलग किस्म की पत्रकारिता पैदा हो,जो राजनीति से नियंत्रित नहीं हो लेकिन देश के प्रज्ञावान लोगों द्वारा प्रेरित हो.पत्रकारिता का मूल कार्य होना चाहिए प्रज्ञावान लोगों को और उसकी प्रज्ञा को प्रकट करना.
कोई भी जबलपुरिया अपने आप में एक ही होता है। किसी और के बस में नहीं है इतनी बड़ी बड़ी बातें कह जाना और मनवा भी लेना। जय हो ओशो (रजनीश) मामा की।
ओशो ने सही कहा। उनकी हर बात गहरे चिन्तन स्वरूप दिल को छूती है। ओशो को विनम्र श्रद्धाँजली।
ओशो को विनम्र श्रद्धाँजली।
ओशो - सिर्फ एक
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ये ब्लॉग इसका उदहारण है ..इस ब्लॉग को कौन लिखता है पता नहीं , और शायद जो भी लिखता है उसको इस बात का कोई लालच भी नहीं है कि लोग उसे जाने .. पर जो भी हो बात तो अछि ही लिख रहा है
kash! aaj ke neta osho- vani se kuchh seekh pate.
:)
ओशो को विनम्र श्रद्धाँजली। ओशो ने सही कहा। उनकी हर बात गहरे चिन्तन स्वरूप दिल को छूती है। ओशो को विनम्र श्रद्धाँजली।