" मेरा पूरा प्रयास एक नयी शुरुआत करने का है। इस से विश्व- भर में मेरी आलोचना निश्चित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता "

"ओशो ने अपने देश व पूरे विश्व को वह अंतर्दॄष्टि दी है जिस पर सबको गर्व होना चाहिए।"....... भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, श्री चंद्रशेखर

"ओशो जैसे जागृत पुरुष समय से पहले आ जाते हैं। यह शुभ है कि युवा वर्ग में उनका साहित्य अधिक लोकप्रिय हो रहा है।" ...... के.आर. नारायणन, भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति,

"ओशो एक जागृत पुरुष हैं जो विकासशील चेतना के मुश्किल दौर में उबरने के लिये मानवता कि हर संभव सहायता कर रहे हैं।"...... दलाई लामा

"वे इस सदी के अत्यंत अनूठे और प्रबुद्ध आध्यात्मिकतावादी पुरुष हैं। उनकी व्याख्याएं बौद्ध-धर्म के सत्य का सार-सूत्र हैं।" ....... काज़ूयोशी कीनो, जापान में बौद्ध धर्म के आचार्य

"आज से कुछ ही वर्षों के भीतर ओशो का संदेश विश्वभर में सुनाई देगा। वे भारत में जन्में सर्वाधिक मौलिक विचारक हैं" ..... खुशवंत सिंह, लेखक और इतिहासकार

Archive for नवंबर 2010

"तो इस सत्संग में मेरे प्रति कोई विशेष पूजा- अर्चना न करें।

मेरे प्रति भी कोई पूजा-अर्चना की भावना नहीं होनी चाहिये।

मेरे प्रति भी एक समझदारी से भरा, विवेकपूर्ण व्यवहार होना

चाहिये। यदि जो मैं कह रहा हूं, तुम्हें सही लगता है, सार्थक

लगता है, तो अवश्य ही तुम्हें दूसरों तक पहुंचाना चाहिये।

जो मैं कह रहा हूं, दूसरों तक पहुंचाने की ग़लती इसलिये मत

करना क्योंकि मैं कह रहा हूं।"

ओशो

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"मैं कोई विचार

नहीं हूं और न ही मैं कहीं अटका हूं।

मैं प्रवाह में हूं । मैं हैराक्लिटस से सहमत हूं कि तुम

एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते। यदि अनुवाद किया जाए

तो इसका अर्थ हुआ: तुम एक ही व्यक्ति को दोबारा नहीं मिल सकते। मैं उससे

सहमत ही नहीं हूं बल्कि एक कदम आगे जाता हूं कि एक ही नदी में

तुम एक बार भी नही उतर सकते। मनुष्य के संसार में यदि

इसका अनुवाद किया जाए तो अर्थ यह हुआ कि

तुम एक ही व्यक्ति को एक बार भी नहीं

मिल सकते क्योंकि एक बार भी

जब तुम उसे मिल रहे

हो तो वह

बदल रहा है,

तुम बदल रहे हो,

संपूर्ण संसार बदल रहा है।"

ओशो

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"मैं

एक साधारण व्यक्ति हूं।

मेरे पास कोई करिश्मा नहीं और मैं

करिश्मे में विश्वास नहीं करता। मैं पद्धतियों में

विश्वास नहीं करता। भले ही मैं उनका इस्तेमाल करता हूं

लेकिन मैं उन पर विश्वास नहीं करता। मैं एक साधारण व्यक्ति हूं,

बहुत आम। मैं भीड़ में खो सकता हूं और तुम कभी मुझे ढूंढ न पाओगे।

मैं तुम्हारे आगे नहीं, साथ चलता हूं।"

ओशो

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तो मैंने समझा की अगर थोड़ी सह किरण से इतनी बेचैनी हुई तो फिर पूरे प्रकाश की चर्चा कर लेनी उचित है। ताकि साफ हो सके कि ज्ञान मनुष्‍य को धार्मिक बनाता है या अधार्मिक बनाता है। यह कारण था इसलिए यह विषय चुना। और अगर यह कारण न होता तो शायद मुझे अचानक खयाल न आता इसे चुनने का। शायद इस पर मैं कोई बात नहीं करता। इस लिहाज से वे लोग धन्‍यवाद के पात्र है, जिन्‍होंने अवसर पैदा किया यह विषय चुनने का। और अगर आपको धन्‍यवाद देना हो तो मुझे मत देना। वह भारतीय विद्या भवन ने जिन्‍होंने सभा आयोजित की थी, उनको धन्‍यवाद देना। उन्‍होंने ही यह विषय चुनाव दिया। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं है।

एक मित्र ने पूछा है, कि मैंने कहा कि काम का रूपांतरण ही प्रेम बनता है। तो उन्‍होंने पूछा है कि मां का बेटे के लिए प्रेम—क्‍या वह भी काम है। वह भी सेक्‍स है। और भी कुछ लोगों ने इसी तरह के प्रश्न पूछे है।

इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा।

एक तल तो शरीर का तल है—बिलकुल फिजियोलॉजलीकल। एक आदमी वेश्‍या के पास जाता है। उसे जो सेक्‍स का अनुभव होता है। वह शरीर का गहरा नहीं हो सकता। वेश्‍या शरीर बेच सकती है। मन नहीं बेच सकती। और आत्‍मा को बेचने का तो कोई उपाय ही नहीं है। शरीर –शरीर से मिल सकता है।

एक आदमी बलात्‍कार करता है। तो बलात्‍कार में किसी का मन भी नहीं मिल सकता ओर किसी की आत्‍मा भी नहीं मिल सकती। शरीर पर बलात्‍कार किया जा सकता है। आत्‍मा पर बलात्‍कार करने का कोई उपाय नहीं है। ने खोजा जा सका हे। न खोजा जा सकता है। तो बलात्‍कार में जो भी अनुभव होगा वह शरीर का होगा। सेक्‍स का प्राथमिक अनुभव शरीर से ज्‍यादा गहरा नहीं होता। लेकिन शरीर के अनुभव पर ही जो रूक जाते है। वे सेक्‍स के पूरे अनुभव को उपलब्ध नहीं होते। उन्‍हें मैंने जो गहराइयों की बातें कहीं है। उसका कोई पता नहीं चल सकता। और अधिक लोग शरीर के तल पर ही रूक जाते है।

इस संबंध में यह भी जान लेना जरूरी है कि जिन देशों में भी प्रेम के बिना विवाह होता है। उस देश में सेक्‍स शरीर के तल पर रूक जाता है। और उससे गहरे नहीं जा सकता।

विवाह दो शरीरों का हो सकता है, विवाह दो आत्‍माओं का नहीं। दो आत्‍माओं का प्रेम हो सकता है।

वह अगर प्रेम से विवाह निकलता हो, तब तो विवाह एक गहरा अर्थ ले लेता है। और अगर विवाह दो पंडितों के और दो ज्‍योतिषियों के हिसाब किताब से निकलता हो, और जाति के विचार से निकलता हो और धन के विचार से निकलता हो तो वैसा विवाह कभी भी शरीर से ज्‍यादा गहरा नहीं जा सकता।

लेकिन ऐसे विवाह का एक फायदा है। शरीर मन के बजाय ज्‍यादा स्‍थिर चीज है। इसलिए शरीर जिन समाजों में विवाह का आधार है, उन समाजों में विवाह सुस्‍थिर होगा। जीवन भर चल जाएगा।

शरीर अस्‍थिर चीज नहीं है। शरीर बहुत स्‍थिर चीज है। उसमें परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे आता है। और पता भी नहीं चलता। शरीर जड़ता का तल है। इसलिए जिन समाजों ने यह समझा कि विवाह को स्‍थिर बनाना जरूरी है—एक ही विवाह पर्याप्‍त हो, बदलाहट की जरूरत न पड़े; उनको प्रेम अलग कर देना पडा। क्‍योंकि प्रेम होता है मन से और मन चंचल है।

जो समाज प्रेम के आधार पर विवाह को निर्मित करेंगे, उन समाजों में तलाक अनिवार्य होगा। उन समाजों में विवाह परिवर्तित होगा। विवाह स्‍थायी व्‍यवस्‍था नहीं हो सकती है। क्‍योंकि प्रेम तरल है।

मन चंचल है, और शरीर स्‍थिर और जड़ है।

आपके घर में एक पत्‍थर पडा हुआ है। सुबह पत्‍थर पड़ा था। सांझ भी पत्‍थर वहीं पडा रहेगा। सुबह एक फूल खिला था। शाम तक मुरझा जाएगा। फूल जिंदा है। जन्मे गा, मरेगा। पत्‍थर मुर्दा है। वैसे का वैसा सुबह था। वैसा ही श्‍याम पडा रहेगा। पत्‍थर बहुत स्‍थिर है।

विवाह पत्‍थर पडा हुआ है। शरीर के तल पर जो विवाह है, वह स्‍थिरता लाता है। समाज के हित में है। लेकिन एक-एक व्‍यक्‍ति के अहित में है। क्‍योंकि वह स्‍थिरता शरीर के तल पर लायी गई है ओर प्रेम से बचा गया है।

इसलिए शरीर के तल से ज्‍यादा पति और पत्‍नी का संभोग और सेक्‍स नहीं पहुंच पात है। एक यांत्रिक , एक मेकैनिकल रूटीन हो जाती है। एक यंत्र की भांति जीवन हो जाता है। सेक्‍स का। उस अनुभव को रिपिट करते रहते हे। और जड़ होते चले जाते है। लेकिन उससे ज्‍यादा गहराई कभी भी नहीं मिलती।

जहां प्रेम के बिना विवाह होता है। उस विवाह में और वेश्‍या के पास जाने में बुनियादी भेद नहीं, थोड़ा सा भेद है। बुनियादी नहीं है वह। वेश्‍या को आप एक दिन के लिए खरीदते है और पत्‍नी को आप पूरे जीवन के लिए खरीदते है। इससे ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ता। जहां प्रेम नहीं है, वहां खरीदना ही है। चाहे एक दिन के लिए खरीदो चाहे पूरी जिंदगी के लिए खरीदो। हालांकि साथ रहने से रोज-रोज एक तरह का संबंध पैदा हो जाता है एसोसिएशन से। लोग उसी को प्रेम समझ लेते है। वह प्रेम नहीं है। वह प्रेम और ही बात है। शरीर के तल पर विवाह है इसलिए शरीर के तल से गहरा संबंध कभी भी नहीं उत्‍पन्‍न हो पाता है। यह एक तल है।

दूसरा तल है सेक्‍स का—मन का तल, साइकोलॉजीकल वात्‍यायन से लेकर पंडित कोक तक जिन लोगों ने भी इस तरह के शास्‍त्र लिखे हे सेक्‍स के बाबत वे शरीर के तल से गहरे नही जाते। दूसरा तल है मानसिक। जो लोग प्रेम करते है और फिर विवाह में बँधते है। उनका प्रेम शरीर के तल से थोड़ा गहरा जाता है। वह मन तक जाता है। उसकी गहराई साइकोलॉजीकल है। लेकिन वह भी रोज-रोज पुनरूक्‍ति होने से थोड़े दिनों में शरीर के तल पर आ जाता है। और यांत्रिक हो जाता है।

जो व्‍यवस्‍था विकसित की है दो सौ वर्षों में प्रेम विवाह की, वह मानसिक तल तक सेक्‍स को ले जाता है, ,और आज पश्‍चिम में आज समाज अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गया है। क्‍योंकि मन का कोई भरोसा नहीं है, वह आज कहता है कुछ, कल कुछ और कहने लग जाता है। सुबह कुछ कहने लगता है, श्‍याम कुछ कहने लगता है। घड़ी भर पहले कुछ कहता है। घड़ी भर बाद कुछ कहने लगता है।

शायद आपने सुना होगा कि बायरन ने जब शादी की तो कहते है कि तब वह कोई साठ-सत्‍तर स्‍त्रियों से संबंधित रह चुका था। एक स्‍त्री ने उसे मजबूर की कर दिया विवाह के लिए। जो उसने विवाह किया और जब वह चर्च से उतर रहा था विवाह करके अपनी पत्‍नी का हाथ-हाथ में लेकर। घंटिया बज रही है चर्च की। मोमबत्तियाँ अभी जो जलाई गई थी। जल रही है। अभी जो मित्र स्‍वागत करने आये थे। वे विदा हो रहे है। और वह अपनी पत्‍नी को हाथ पकड़कर सामने खड़ी घोड़ा-गाड़ी में बैठने के लिए चर्च की सीढ़ियाँ उतर रहा है। तभी उसे चर्च केसामने ही एक और स्‍त्री जाती हुई दिखाई देती है। एक क्षण को वह भूल जाता है अपनी पत्‍नी को। उसके हाथ को, अपने विवाह को। सारा प्राण उस स्‍त्री के पीछा करने लगा। जाकर वह गाड़ी में बैठा। बहुत ईमानदार आदमी रहा होगा। उसने अपनी पत्‍नी से कहां, तूने कुछ ध्‍यान दिया। एक अजीव घटना घट गई। कल तक तुझसे मेरा विवाह नहीं हुआ था, तो मैं विचार करता था कि तू मुझे मिल पायेगी या नहीं। तेरे सिवाय मुझे कोई भी दिखाई नहीं पड़ता था और आज जबकि विवाह हो गया है, मैं तेरा हाथ पकड़कर नीचे उत्‍तर रहा हूं। मुझे एक स्त्री दिखाई पड़ी गाड़ी के उस तरफ जाती हुई और तू मुझे भल गयी। और मेरा मन उस स्‍त्री का पीछा करने लगा। और एक क्षण को मुझे लगा कि काश यह स्‍त्री मुझे मिल जाये।

मन इतना चंचल है। तो जिन लोगों को समाज को व्‍यवस्‍थित रखना था। उन्‍होंने मन के तल पर सेक्‍स को नहीं जाने दिया। उन्‍होंने शरीर के तल पर रोक लिया। विवाह करो,प्रेम नहीं। फिर विवाह से प्रेम आता हो तो आये। न आता हो न आये। शरीर के तल पर स्‍थिरता हो सकती है। मन के तल पर स्‍थिरता बहुत मुशिकल है। लेकिन मन के तल पर सेक्‍स का अनुभव शरीर से ज्‍यादा गहरा होता है।

पूरब की बजाय पश्‍चिम का सेक्‍स का अनुभव ज्‍यादा गहरा है।

पश्‍चिम के जो मनोवैज्ञानिक हैं फ्रायड से जुंग तक, उन सारे लोगों ने जो लिखा है वह सेक्‍स की दूसरी गहराई है, वह मन की गहराई है।



ओशो

संभोग से समाधि की ओर,

प्रवचन— बम्‍बई,

2 अक्‍टूबर—1968,

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"मैं न तो पूर्व का व्यक्ति हूं न पश्चिम का। मेरा संबंध न किसी देश से है, न किसी राष्ट्र से और

न किसी धर्म से। क्योंकि यदि आप किसी एक देश से जुड़े है तो फिर सबसे

नहीं जुड़ सकते। यदि आप किसी एक धर्म से जुड़े हैं तो सब धर्म

आपके नहीं हो सकते। मैं किसी एक से नहीं जुड़ा हूं। मेरी

जड़ें न किसी एक देश मैं हैं, न किसी एक धर्म

में न किसी विशेष मानव

जाति में ।"

ओशो

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"मैं तुम्हें कोई लक्ष्य नहीं देने वाला। मैं तुम्हें केवल दिशा दे सकता हूं - जाग्रत, जीवन से स्पंदित, अज्ञात, सदा

विस्मयपूर्ण, बिना किसी पूर्वानुमान के। मैं तुम्हें कोई नक्शा नहीं दे रहा। मैं तुम्हें तलाश की महा -

जिज्ञासा दे सकता हूं।हां, कोई नक्शा नहीं चाहिये। तलाश के लिये महा - अभीप्सा,

महा - आकांक्षा चाहिये। फिर मैं तुम्हें अकेला छोड़ देता हूं। फिर तुम अकेले

निकल पड़ते हो। महा - यात्रा पर जाने के लिये। अनंत की यात्रा

पर निकल पड़ो और धीरे - धीरे इस पर श्रद्धा करना सीखो।

स्वयं को जीवन के भरोसे छोड़ दो।"


ओशो

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"कभी-कभी कुछ मूर्ख लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं: ´आपकी देशना क्या है? आपकी कौनसी ऐसी

पुस्तक है जिसमें आपकी पूरी देशना का सार-सूत्र हो?´ मेरी कोई देशना नहीं है! तभी मेरी इतनी

पुस्तकें उपलब्ध हैं। नहीं तो इतनी पुस्तकें कैसे संभव होती? अगर कोई विशेष

देशना हो तो एक या दो पुस्तकें बहुत हैं। तभी तो मैं बोलता चला जाता

हूं क्योंकि मेरी कोई देशना नहीं है। हर देशना एक न एक

दिन चुक जायेगी। मैं नहीं चुक सकता। कहीं कोई

आदि नहीं, कोई अंत नहीं... हम सदा मध्य

में हैं। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं।"

ओशो

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दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें .... सबके लिए !

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एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को कुछ लोग बंबई कहते है। उस बड़े बाजार में एक सभा थी और उस सभा में एक पंडितजी, कबीर क्‍या कहते है, इस संबंध में बोलते थे। उन्‍होंने कबीर की एक पंक्‍ति कहीं और उसका अर्थ समझाया। उन्‍होंने कहा, ‘’कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारे अपना चले हमारे साथ।’’ उन्‍होंने यह कहा कि कबीर बाजार में खड़ा था और चिल्‍लाकर लोगों से कहने लगा कि लकड़ी उठाकर बुलाता हूं उन्‍हें जो अपने घर को जलाने की हिम्‍मत रखते हों वे हमारे साथ आ जायें।

उस सभा में मैंने देखा कि लोग यह बात सुनकर बहुत खुश हुए। मुझे बड़ी हैरानी हुई— मुझे हैरानी यह हुई कि वह जो लोग खुश हो रहे थे। उनमें से कोई भी आपने घर को जलाने को कभी तैयार नहीं था। लेकिन उन्‍हें प्रसन्‍न देखकर मैंने समझा कि बेचारा कबीर आज होता तो इतना खुश न होता। जब तीन सौ साल पहले वह था और किसी बाजार में उसने चिल्‍लाकर कहा होगा तो एक भी आदमी खुश नहीं हुआ होगा।

आदमी की जात बड़ी अद्भुत है। जो मर जाते है उनकी बातें सुनकर लोग खुश होते है जो जिंदा होते है, उन्‍हें मार डालने की धमकी देते है।

मैंने सोचा कि आज कबीर होते, इस बंबई के बड़े बाजार में तो कितने खुश होते कि लोग कितने प्रसन्‍न हो रहे है। कबीर जी क्‍या कहते है, इसको सुनकर लोग प्रसन्‍न हो रहे हे। कबीर जी को सुनकर वे कभी भी प्रसन्‍न नहीं हुए थे। लेकिन लोगों को प्रसन्‍न देखकर ऐसा लगा कि जो लोग अपने घर को जलाने के लिए भी हिम्‍मत रखते है और खुश होते है, उनसे कुछ दिल की बातें आज कही जायें। तो मैं भी उसी धोखे में आ गया। जिसमें कबीर और क्राइस्‍ट और सारे लोग हमेशा आत रहे है।

मैंने लोगों से सत्‍य की कुछ बात कहनी चाही। और सत्‍य के संबंध में कोई बात कहनी हो तो उन असत्‍यों को सबसे पहले तोड़ देना जरूरी है, जो आदमी ने सत्‍य समझ रखे है। जिन्‍हें हम सत्‍य समझते है और जो सत्‍य नहीं है। जब तक उन्‍हें न तोड़ दिया जाए, तब तक सत्‍य क्‍या है उसे जानने की तरफ कोई कदम नहीं उठाया जा सकता।

मुझे कहा गया था उस सभा में कि मैं प्रेम के संबंध में कुछ कहूं और मुझे लगा कि प्रेम के संबंध में तब तक बात समझ में नहीं आ सकती, जब तक कि हम काम और सेक्‍स के संबंध में कुछ गलत धारणाएं लिए हुए बैठे है। अगर गलत धारणाएं है सेक्‍स के संबंध में तो प्रेम के संबंध में हम जो भी बातचीत करेंगे वह अधूरी होगी। वह झूठी होगी। वह सत्‍य नहीं हो सकती।

इसलिए उस सभा में मैंने काम और सेक्‍स के संबंध में कुछ कहा। और यह कहा कि काम की उर्जा ही रूपांतरित होकर प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति बनती है। एक आदमी खाद खरीद लाता है, गंदी और बदबू से भरी हुई और अगर अपने घर के पास ढेर लगा ले तो सड़क पर से निकलना मुश्‍किल हो जायेगा। इतनी दुर्गंध वहां फैलेगी। लेकिन एक दूसरा आदमी उसी खाद को बग़ीचे में डालता है और फूलों के बीज डालता है। फिर वे बीज बड़े होते है पौधे बनते है। और उनमें फूल निकलते है। फूलों की सुगंध पास-पड़ोस के घरों मे निमंत्रण बनकर पहुंच जाती है। राह से निकलते लोगों को भी वह सुगंध छूती है। वह पौधों को लहराता हुआ संगीत अनुभव होता है। लेकिन शायद ही कभी आपने सोचा हो कि फूलों से जो सुगंध बनकर प्रकट हो रहा रही है। वह वही दुर्गंध है जो खाद से प्रकट होती थी। खाद की दुर्गंध बीजों से गुजर कर फूलों की सुगंध कर जाती है।

दुर्गंध सुगंध बन सकती है। काम प्रेम बन सकता है।

लेकिन जो काम के विरोध में हो जायेगा। वह उसे प्रेम कैसे बनायेगे। जो काम का शत्रु हो जायगा, वह उसे कैसे रूपांतरित करेगा? इसलिए काम को सेक्‍स को, समझना जरूरी है। यह वहां कहां और उसे रूपांतरित करना जरूरी है।

मैंने सोचा था, जो लोग सिर हिलाते थे घर जल जाने पर, वे लोग मेरी बातें सुनकर बड़े खुश होंगे। लेकिन मुझसे गलती हो गयी। जब मैं मंच से उतरा तो उस मंच पर जितने नेता थे, जितने संयोजक थे, वे सब भाग चुके थे। वे मुझे उतरते वक्‍त मंच पर कोई नहीं मिले। वे शायद अपने घर चले गये होंगे कि कहीं घर में आग न लग जाये। उसे बुझाने का इंतजाम करने भाग गये थे। मुझे धन्‍यवाद देने को भी संयोजक वहां नहीं थे। जितनी भी सफेद टोपियों थी। जितने भी खादी वाले लोग थे। वे मंच पर कोई भी नहीं थे। वे जा चुके थे।

नेता बड़ा कमजोर होता है। वह अनुयायियों के पहले भाग जाता है।

लेकिन कुछ हिम्‍मतवर लोग जरूर आये। कुछ बच्‍चे आये, कुछ बच्‍चियां आयी, कुछ बूढ़े, कुछ जवान। और उन्‍होंने मुझसे कहा कि आपने वह बात हमें कहीं है, जो हमें किसी ने कभी नहीं कही। और हमारी आंखें खोल दी है। हमें बहुत ही प्रकाश अनुभव हुआ है। तो फिर मैंने सोचा कि उचित होगा कि इस बात को और ठीक से पूरी तरह कहां जाये। इसलिए यह विषय मैंने आज यहां चुना। इस चार दिनों में यक कहानी जो वहां अधूरी रह गयी थी। उसे पूरा करने का एक कारण यह था कि लोगों ने मुझे कहा। और वह उन लोगों ने कहा, जिनको जीवन को समझने की हार्दिक चेष्‍टा है। और उन्‍होंने चाहा कि मैं पूरी बात कहूं। एक तो कारण यह था।

और दूसरा कारण यह था कि वे जो भाग गये थे मंच से, उन्‍होंने जगह-जगह जाकर कहना शुरू कर दिया कि मैंने तो ऐसी बातें कही है कि धर्म का विनाश ही हो जायेगा। मैंने तो ऐसी कहीं है, जिनसे कि लोग अधार्मिक हो जायेंगे।

तो मुझे लगा कि उनका भी कहना पूरा स्‍पष्‍ट हो सके, उनको भी पता चल सके कि लोग सेक्‍स के संबंध में समझकर अधार्मिक होने वाले नहीं है। नहीं समझा है उन्‍होंने आज तक इसलिए अधार्मिक हो गये है।

अज्ञान अधार्मिक बनाता हो। ज्ञान कभी भी अधार्मिक नहीं बना सकता है।

और अगर ज्ञान अधार्मिक बनाता हो तो मैं कहता हूं कि ऐसा ज्ञान उचित है। जो अधार्मिक बना दे, उस अज्ञान की बजाय जो कि धार्मिक बनाता हो। धर्म तो वही सत्‍य है जो ज्ञान के आधार पर खड़ा होता है।

और मुझे नहीं दिखायी पड़ता की ज्ञान मनुष्‍य को कहीं भी कोई हानि पहुंचा सकता है। हानि हमेशा अंधकार से पहुंचती है और अज्ञान से।

इसलिए अगर मनुष्‍य जाति भ्रष्‍ट हो गयी; यौन के संबंध में विकृत और विक्षिप्‍त हो गयी। सेक्‍स के संबंध में पागल हो गयी तो उसका जिम्‍मा उन लोगो पर नहीं है, जिन्‍होंने सेक्‍स के संबंध में ज्ञान की खोज की है। उसका जिम्‍मा उन नैतिक धार्मिक और थोथे साधु-संतों पर है, जिन्‍होंने मनुष्‍य को हजारों वर्षो से अज्ञान में रखने की चेष्‍टा की है। यह मनुष्‍य जाति कभी की सेक्‍स से मुक्‍त हो गयी होती। लेकिन नहीं यह हो सका। नहीं हो सका उनकी वजह से जो अंधकार कायम रखने की चेष्‍टा कर रहे है।


ओशो

संभोग से समाधि की ओर,

अक्‍टूबर—1968,

अगले भाग के लिए कृपया इंतजार करे ....... जल्द प्रकाशित होगा

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"अतीत में जो भी बुद्धपुरुषों ने किया वह शुभ था लेकिन काफी नहीं।

उन्होंने अपने लिये परम चेतना का शिखर निर्मित किया।

उस चेतना के शिखर को मैं सब के लिये निर्मित

करना चाहूंगा- कम से कम उन लोगों के

लिये जो इसे खोज रहे हैं।"

ओशो

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