लेकिन इसका मुझपर कोई असर नहीं। कारण केवल इतना
है कि सही समझे जाने की कोई जिज्ञासा नहीं। यदि वे सही
नहीं समझते तो यह उनकी समस्या है, यह मेरी समस्या
नहीं है। यदि वे गलत समझते हैं तो यह उनकी समस्या है,
उनका दुख है। मैं अपनी नींद नहीं खराब करूंगा यदि लाखों
लोग मुझे गलत समझ रहे हैं।"
ओशो
galat samajhne se hi koi galat nahi siddh hota. jo sahi hai wah kisi ke dwara galat samjhe jane par dhyan nahi deta.
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सच कहने वालो को दुनिया ने हमेशा गलत ही समझा है
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सच कहने वालो को दुनिया ने हमेशा गलत ही समझा है
lekin kisi ke galat samajhne se kya fark padta hai
koi kuchch bhi samajh sakta hai sabki apni apni soch hai
ओशो जी आप तो जबलपुरिया हैं इसीलिए यहाँ वाले तो आपको ग़लत समझ ही नहीं सकते।
osho ko sahi samjhne k liye sahi ...pure samajh chahiye jo majority me hai nahi...so unhe galat samjha gaya..
सही और गलत समझना प्रत्येक का निजि निर्णय होता है...ओशो भी स्वानुभव के आधार पर अपनी बात कहते थे। यदि कोई अपने आप को सही समझता है तो दूसरे क्या कहते हैं इस से कोई फर्क नही पड़ता।
aur jo sahi samjh rahe hain....
wo bhi UN ki hi samasyaa hai......aapki nahin....
hai naa....!!!!!!!!!!!!!!!
पी.डी.आस्पेंस्की ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है, टर्शियम आर्गानम। किताब के शुरू में उसने एक छोटा सा वक्तव्य दिया है। पी.डी.आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। बाद में, पश्चिम के एक बहुत अदभुत फकीर गुरजिएफ के साथ वह एक रहस्यवादी संत हो गया। लेकिन उसकी समझ गणित की है-गहरे गणित की।
उसने अपनी इस अदभुत किताब के पहले ही एक वक्तव्य दिया है, जिसमें उसने कहा है कि दुनिया में केवल तीन अदभुत किताबें हैं; एक किताब है अरिस्टोटल की-पश्चिम में जो तर्क-शास्त्र का पिता है, उसकी-उस किताब का नाम है: आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, ज्ञान का सिद्धांत।
फिर आस्पेंस्की ने कहा है कि दूसरी महत्वपूर्ण किताब है रोजर बैकन की, उस किताब का नाम है: नोवम आर्गानम-ज्ञान का नया सिद्धांत। और तीसरी किताब वह कहता है मेरी है, खुद उसकी, उसका नाम है: टर्शियम आर्गानम-ज्ञान का तीसरा सिद्धांत। और इस वक्तव्य को देने के बाद उसने एक छोटी सी पंक्ति लिखी है जो बहुत हैरानी की है।
उसमें उसने लिखा है, बिफोर दि फर्स्ट एक्झिस्टेड, दि थर्ड वाज़। इसके पहले कि पहला सिद्धांत दुनिया में आया, उसके पहले भी तीसरा था। पहली किताब लिखी है अरस्तू ने दो हजार साल पहले। दूसरी किताब लिखी है तीन सौ साल पहले बैकन ने। और तीसरी किताब अभी लिखी गई है कोई चालीस साल पहले।
लेकिन आस्पेंस्की कहता है कि पहली किताब थी दुनिया में उसके पहले तीसरी किताब मौजूद थी। और तीसरी किताब उसने अभी चालीस साल पहले लिखी है! जब भी कोई उससे पूछता कि यह क्या पागलपन की बात है? तो आस्पेंस्की कहता कि यह जो मैंने लिखा है, यह मैंने नहीं लिखा, यह मौजूद था, मैंने सिर्फ उदघाटित किया है।
न्यूटन नहीं था, तब भी जमीन में ग्रेविटेशन था। तब भी जमीन पत्थर को ऐसे ही खींचती थी जैसे न्यूटन के बाद खींचती है। न्यूटन ने ग्रेविटेशन के सिद्धांत को रचा नहीं, उघाड़ा। जो ढंका था, उसे खोला। जो अनजाना था, उसे परिचित बनाया। लेकिन न्यूटन से बहुत पहले ग्रेविटेशन था, नहीं तो न्यूटन भी नहीं हो सकता था।
ग्रेविटेशन के बिना तो न्यूटन भी नहीं हो सकता, न्यूटन के बिना ग्रेविटेशन हो सकता है। जमीन की कशिश न्यूटन के बिना हो सकती है, लेकिन न्यूटन जमीन की कशिश के बिना नहीं हो सकता। न्यूटन के पहले भी जमीन की कशिश थी, लेकिन जमीन की कशिश का पता नहीं था।
ओशो जी को गलत समझना बहुत बड़ी भूल होगी । ओशो जी के तर्को का सामना कौन कर सकता हैँ। बहुत ही अच्छे लेख पोस्ट करते है आप। धन्यवाद!
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मेरे ब्लोग पर भी आपका स्वागत है।
"एक चर्तुभुज बनाके छोड़ा मुझे...........कविता"
आस्पेंस्की कहता है कि उसका तीसरा सिद्धांत पहले सिद्धांत के भी पहले मौजूद था। पता नहीं था, यह दूसरी बात है। और पता नहीं था, यह कहना भी शायद ठीक नहीं। क्योंकि आस्पेंस्की ने अपनी पूरी किताब में जो कहा है, वह इस छोटे से सूत्र में आ गया है। आस्पेंस्की की टर्शियम आर्गानम जैसी बड़ी कीमती किताब...।
मैं भी कहता हूं कि उसका दावा झूठा नहीं है। जब वह कहता है कि दुनिया में तीन महत्वपूर्ण किताबें हैं और तीसरी मेरी है, तो किसी अहंकार के कारण नहीं कहता। यह तथ्य है। उसकी किताब इतनी ही कीमती है। अगर वह न कहता, तो वह झूठी विनम्रता होती। वह सच कह रहा है।
विनम्रतापूर्वक कह रहा है। यही बात ठीक है। उसकी किताब इतनी ही महत्वपूर्ण है। लेकिन उसने जो भी कहा है पूरी किताब में, वह इस छोटे से सूत्र में आ गया है। उसने पूरी किताब में यह सिद्ध करने की कोशिश की कि दुनिया में दो तरह के गणित हैं।
एक गणित है, जो कहता है, दो और दो चार होते हैं। साधारण गणित है। हम सब जानते हैं। साधारण गणित कहता है कि अगर हम किसी चीज के अंशों को जोड़ें, तो वह उसके पूर्ण से ज्यादा कभी नहीं हो सकते।
साधारण गणित कहता है, अगर हम किसी चीज को तोड़ लें और उसके टुकड़ों को जोड़ें, तो टुकड़ों का जोड़ कभी भी पूरे से ज्यादा नहीं हो सकता है। यह सीधी बात है। अगर हम एक रुपए को तोड़ लें सौ नए पैसे में, तो सौ नए पैसे का जोड़ रुपए से ज्यादा कभी नहीं हो सकता।
या कि कभी हो सकता है? अंश का जोड़ कभी भी अंशी से ज्यादा नहीं हो सकता, यह सीधा सा गणित है। लेकिन आस्पेंस्की कहता है, एक और गणित है, हायर मैथमेटिक्स। एक और ऊंचा गणित भी है और वही जीवन का गहरा गणित है।
वहां दो और दो जरूरी नहीं है कि चार ही होते हों। कभी वहां दो और दो पांच भी हो जाते हैं। और कभी वहां दो और दो तीन भी रह जाते हैं। और वह कहता है कि कभी-कभी अंशों का जोड़ पूर्ण से ज्यादा भी हो जाता है।
dhanyavaad....
ओशो को जन्मदिन पर नमन!
ओशो पीने की चीज़ है जानने की नहीं!