पत्रकार की तो और भी अड़चन है। पत्रकार तो जीता है गलत पर ही। पत्रकार का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। पत्रकार तो जीता असत्य पर है, क्योंकि असत्य लोगों को रुचिकर है। अख़बार में लोग सत्य को खोजने नहीं जाते। अफवाहें खोजते है। तुम्हें शायद पता हो या न हो कि स्वर्ग कोई अख़बार नहीं निकलता। कोई ऐसी घटना ही नहीं घटती स्वर्ग में जो अख़बार में छापी जा सकें। नरक में बहुत अख़बार निकलते है। क्योंकि नरक में तो घटनाएं घटती ही रहती है।
एक बार एक पत्रकार मरा और स्वर्ग पहुंच गया। द्वार पर दस्तक दी। द्वारपाल ने द्वार खोला और पूछा कि क्या चाहते हो? उसने कहा, मैं पत्रकार हूं, और स्वर्ग में प्रवेश चाहता हूं। द्वारपाल हंसा और उसने कहा कि असंभव, तुम्हारे लिए ठीक जगह नरक में है, तुम्हारा काम वहीं पर है। तुम्हें यहां पर कोई रस नहीं आयेगा। तुम्हें रस भी वहीं पर आयेगा। तुम्हारा सारा व्यवसाय वहीं फलता है। यहां तो सिर्फ, नरक से हम पीछे ने पड़ जाये, चौबीस जगह खाली रखी है अख़बार वालों के लिए। मगर वे कब की भरी है। चौबीस अख़बार वाले हमारे यहां है।
हालांकि वे भी सब बेकार है। अख़बार छपता ही नहीं। एक कोरा कागज रोज बँटता है, ऋषि-मुनि उसको पढ़ते है। ऋषि-मुनि कोरे कागज ही पढ़ सकते है। क्योंकि उनका मन कोरा है। उसपर कोई शब्द अंकित नहीं है, इस लिए वो कोरा कागज पढ़ते है। उन्हें शब्दों की जरूरत नहीं है। और फिर यहां पर कोई उत्तेजना नहीं है, चारों और शांति है, न ही कोई घटना घटती है। न यहां बलात्कार होते है, न ही घोटाले, न कहीं चोरी-चकोरी, न काला धन की खोज, न ही यहां पर साधुओं को गोरख धंधा चलता है। क्योंकि यहां सब संत है। कोन ध्यान, योग आसन सिखाने के नाम पर अपनी दुकान चलाए, एक ही दिन में उसकी दुकान पर ताल लग जायेगा। अज्ञानियों को ही अज्ञानी भटका सकते है। ज्ञानियों के यहां उनकी दाल गलनें वाली नहीं है।
तुम नरक में जाओ, वहां खुब समाचार है, वहां आदमी को कुत्ता भी काट ले तो समाचार बन जाता है। वहां पर रोज-रोज नये तमाशे होते है। और कुछ नहीं तो धारावाहिक ही हनुमान की पूछ होते है। उन्हें ही खींचे जाओ। वहां आदमी कुत्ते को काट ले तो भी समाचार वहां समाचारों की कोई कमी नहीं है। नाहक यहां तू अपना सर फोड़ेगा। कुछ काम नहीं मिलेगा। फिर दो चार दिन में मेरी जान खायेगा की मुझे बहार निकल फिर, तुझे जीवन भर यहीं फँसना होगा। क्योंकि यहां पर चौबीस ही पत्रकार रह सकते है। फिर न जाने कितने सालों बाद कोई पत्रकार स्वर्ग आये तब तू निकल सकेगा।
यहां पर तू बेकार समय खराब कर रहा है। तू नरक में जा वहां पर तेरा मन भी लगा रहेगा और कुछ काम धंधा भी तुम मिल जायेगा। नरक चले जाओ। वहां रोज-रोज नये अख़बार निकलते है, सुबह का संस्करण भी निकलता है, दोपहर का संस्करण भी, सांझा का भी संस्करण, देर रात्रि का भी। खबरें वहां पर इतनी ज्यादा है। घटनाओं पर घटनाएं घटती रहती है। स्वर्ग में कोई घटना थोड़े ही घटती है।
महावीर बैठे अपने वृक्ष के नीचे, बुद्ध बैठे है अपने वृक्ष के नीचे, मीरा नाच रही है, कबीर जी कपड़ा बुने जा रहे है अपनी खड्डी पर और खंजड़ी बजा रहो है, रवि दास जी अपना चमड़ा रंग रहे है, नानक जी बाला मर्दाना के साथ पद गये जा रहे। सारा स्वर्ग आनंद से सरा बोर है। यहां पर कोई घटना नहीं घटती, सब अपने आनंद में डूबे है। यहां पर कुछ नहीं होता। यहां सब ठहर गया है।
लेकिन अख़बार वाला भी इतनी जल्दी से हार मानने वाला नहीं था। वह जब तक पूरी खोज बीन न कर ले उसे तसल्ली नहीं होने वाली। यूं तो नेताओं के घर से भी बहार निकाल दिया जाता था। पर जब तक पूरी तसल्ली नहीं हो जाती तब तक गेट पर अड़ा रहता था। इतनी जल्दी हटने वाला वो नहीं था। उसने द्वार पाल को अपनी चिकनी चुपड़ी बातें में फंसा कर चौबीस घंटे के अवसर के द्वार पाल को राज़ी कर लिया। कि अगर मैं किसी अख़बार वाले को स्वर्ग से बहार जाने के लिए किसी अख़बार वाले को तैयार कर लूं तो मुझे जगह मिल जायेगी।
द्वार पाल ने कहा, तुम्हारी मर्जी अगर कोई राज़ी हो जाए, तो तेरा भाग्य, मैं तुझे अपने रिसक पर चौबीस घंटे का मौका दिये देता हूं। तू भीतर चला जा।
और अख़बार वाले ने, जो वह जिंदगी भर करता रहा था, वहीं काम किया। उसने जो मिला उसी से कहा कि अरे सुना तुमने, नरक में एक बहुत बड़े अख़बार के निकलने की आयोजना चल रही है। प्रधान संपादक, उप प्रधान संपादक, संपादक, सब जगह खाली है। बडी तनख़ाह, कारें, बगले, सब का इंतजाम है। सांझ होते-होते उसने चौबीसों अख़बार वालों को मिल कर यह खबर पहुंचा दि। चौबीस घंटे पूरे होने पर वह द्वार पर पहुंचा। द्वारपाल ने कहा कि गजब कर दिया भाई तुमने, एक नहीं चौबीस ही चले गए, अब तुम मजे से रहो।
उसने कहा पर मैंने चौबीस घंटे रह कर देख लिया, यहां तो मैं पागल हो जाऊँगा, ये लोग बड़े ही साहसी थे जो इतने दिन से रह रहे थे। मैं भी जाना चाहता हूं।
द्वारपाल ने पूछा अब तो आपका रास्ता साफ हो गया अब आप क्यों जाना चाहते है?
उसने कहां कोन जाने बात सच ही हो।
झूठ में एक गुण है। चाहे तुम ही उसे शुरू करो, लेकिन अगर दूसरे उस पर विश्वास करने लगें तो एक न एक दिन तुम भी उस पर विश्वास कर लोगे। जब दूसरों को तुम विश्वास करते देखोगें, उसकी आंखों में आस्था जगती देखोगें, तुम्हें भी शक होने लगेगा; कौन जने हो न हो बात सच ही हो। मैंने तो झूठ की तरह कही थी, लेकिन हो सकता है, संयोगवशात मैं जिसे झूठ समझ रहा था वह सत्य ही रहा हो। मेरे समझने में भूल हो गई होगी। क्योंकि चौबीस आदमी कैसे धोखा खा सकेत है? उसने कहा कि नहीं भाई,अब मैं रूकने वाला नहीं हूं। पहले तो मुझे नरक जाने ही दो। स्वर्ग तो आपका एक दिन देख ही लिया, एकदम रूखा है।
स्वर्ग में अख़बार नहीं निकलता, क्योंकि घटना नहीं घटती,शांत, ध्यानस्थ,निर्विकल्प समाधि में बैठे हों लोग तो क्या है वहां घटना?
अख़बार तो जीता है उपद्रव पर। जितना उपद्रव हो उतना अख़बार जीता हे। जहां उपद्रव नहीं है वहां भी अख़बार वाला उपद्रव खोज लेता है, जहां बिलकुल खोज नहीं पाता वहां ईजाद कर लेता है।
बहुत सुंदर.
बहुत सुंदर.
एक छोटे से मजाक से महाभारत पैदा हुआ। एक छोटे से व्यंग से, द्रौपदी के कारण जो दुर्योधन के मन में तीर की तरह चुभ गया और द्रौपदी नग्न की गई। नग्न् कि गई; हुई नहीं—यह दूसरी बात है। करने वाले ने कोई कोर-कसर न छोड़ी थी। करने वालों ने सारी ताकत लगा दी थी। लेकिन फल आया नहीं, किए हुए के अनुकूल नहीं आया फल—यह दूसरी बात हे।
असल में, जो द्रौपदी को नग्न करना चाहते थे, उन्होंने ख्याल रख छोड़ा था। उनकी तरफ से कोई कोर कसर न थी। लेकिन हम सभी कर्म करने वालों को, अज्ञात भी बीच में उतर आता है। इसका कभी कोई पता नहीं है। वह जो कृष्ण की कथा है, वह अज्ञात के उतरने की कथा है। अज्ञात के हाथ है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते।
हम ही नहीं है इस पृथ्वी पर। मैं अकेला नहीं हूं। मेरी अकेली आकांक्षा नहीं हे। अनंत आकांक्षा है। और अंनत की भी आंकाक्षा है। और उन सब के गणित पर अंतत: तय होता है कि क्या हुआ। अकेला दुर्योधन ही नहीं है नग्न करने में, द्रौपदी भी तो है जो नग्न की जा रही है। द्रौपदी की भी तो चेतना है, द्रौपदी का भी तो अस्तित्व है। और अन्याय होगा यह कि द्रौपदी वस्तु की तरह प्रयोग की जाए। उसके पास भी चेतना है और व्यक्तिव है, उसके पास भी संकल्प है। साधारण स्त्री नहीं है द्रौपदी।
सच तो यह है कि द्रौपदी के मुकाबले की स्त्री पूरे विश्व के इतिहास में दूसरी नहीं है। कठिन लगेगी बात। क्यों कि याद आती है सीता की, याद आती सावित्री की याद आती है सुलोचना की और बहुत यादें है। फिर भी मैं कहता हुं, द्रौपदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। द्रौपदी बहुत ही अद्वितीय है। उसमें सीता की मिठास तो है ही, उसमें क्लियोपैट्रा का नमक भी है। उसमें क्लियोपैट्रा का सौंदर्य तो है ही, उस में गार्गी का तर्क भी है। असल में पूरे महाभारत की धुरी द्रौपदी है। यह सारा युद्ध उसके आस पास हुआ है।
लेकिन चूंकि पुरूष कथाएं लिखते हे। इसलिए कथाओं में पुरूष-पात्र बहुत उभरकर दिखाई पड़ते है। असल में दुनिया की कोई महाकथा स्त्री की धुरी के बिना नहीं चलती है। सब महाकथाएं स्त्री की धुरी पर घटित होती है। वह बड़ी रामायण सीता की धुरी पर घटित हुई है। राम और रावण तो ट्राएंगल के दो छोर है, धुरी तो सीता है।
ये कौरव और पांडव और यह सारा महाभारत और यह सारा युद्ध द्रौपदी की धुरी पर घटा हे। उस युग की और सारे युगों की सुंदर तम स्त्री है वह। नहीं आश्चर्य नहीं है कि दुर्योधन ने भी उसे चाहा हो। असल में उस युग में कौन पुरूष होगा जिसने उसे न चाहा हो। उसका अस्तित्व, उसके प्रति चाह पैदा करने वाला था। दुर्योधन ने भी उसे चाहा हे और वह चली गई अर्जुन के पास।
और वह भी बड़े मजे की बात है कि द्रौपदी को पाँच भाइयों में बांटना पडा। कहानी बड़ी सरल हे। उतनी सरल घटना नहीं हो सकती। कहानी तो इतनी ही सरल है कि अर्जुन ने आकर बाहर से कहा कि मां देखो, हम क्या ले आए है। और मां ने कहा, जो भी ले आए हो वह पांचों भाई बांट लो। लेकिन इतनी सरल घटना हो नहीं सकती। क्यों कि जब बाद में मां को भी तो पता चला होगा। कि यह मामला वस्तु का नहीं, स्त्री का है। यह कैसे बाटी जा सकती है। तो कौन सी कठिनाई थी कि कुंती कह देती कि भूल हुई। मुझे क्या् पता था कि तूम पत्नी ले आए हो।
लेकिन मैं जानता हूं कि जो संघर्ष दुर्योधन और अर्जुन के बीच होता, वह संघर्ष पाँच भाइयों के बीच भी हो सकता था। द्रौपदी ऐसी थी, वे पाँच भी कट-मर सकते थे उसके लिए। उसे बांट देना ही सुगमंतम राजनीति थी। वह घर भी कट सकता था।
वह महायुद्ध जो पीछे कौरवों-पांडवों में हुआ, वह पांडवों-पांडवों में भी हो सकता था।
इसलिए कहानी मेरे लिए इतनी सरल नहीं है। कहानी बहुत प्रतीकात्मपक है और गहरी है। वह यह खबर देती है कि स्त्री वह ऐसा थी। कि पाँच भाई भी लड़ सकते थे। इतनी गुणी थी। साधारण नहीं थी। असाधारण थी। उसको नग्न करना आसान बात नहीं थी। आग से खेलना था। तो अकेला दुर्योधन नहीं है कि नग्न कर ले। द्रौपदी भी है।
और ध्यान रहे, बहुत बातें है इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी है। जब तक कोई स्त्री स्वय नग्न न होना चाहे, तक इस जगत में कोई पुरूष किसी स्त्री को नग्न नहीं कर सकता है, न हीं कर पाता है। वस्त्र उतार भी ले, तो भी नग्न नहीं कर सकता है। नग्न होना बड़ी घटना है वस्त्र उतरने से निर्वस्त्र होने से नग्न होना बहुत भिन्न घटना है। निर्वस्त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है, लेकिन नग्न करना बहुत दूसरी बात है।
नग्न तो कोई स्त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्वयं। अन्यथा नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्त्र छीने जा सकते है। लेकिन वस्त्र छीनना स्त्री को नग्नं करना नहीं है।
और बात यह भी है कि द्रौपदी जैसी स्त्रीं को नहीं पा सकता दुयोर्धन। उसके व्यंग तीखे पड़ गए उसके मन पर।
बड़ा हारा हुआ है। हारे हुए व्यवक्ति –जैसे कि क्रोध में आए हुई बिल्लियों खंभे नोचने लगती है। वैसा करने लगते है। और स्त्री के सामने जब भी पुरूष हारता है—और इससे बड़ी हार पुरूष को कभी नहीं होती। पुरूष से लड़ ले, हार जीत होती है। लेकिन पुरूष जब स्त्री से हारता है। किसी भी क्षण में तो इससे बड़ी हार नहीं होती है।
तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्न करने का जितना आयोजन करके बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरूष मन का है। और उस तरफ जो स्त्री खड़ी है हंसने वाली, वह कोई साधारण स्त्री नहीं है। उसका भी अपना संकल्प है अपना विल है। उसकी भी अपनी सामर्थ्य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। उसकी उस श्रद्धा में वह जो कथा है, वह कथा तो काव्य है कि कृष्ण उसकी साड़ी को बढ़ाए चले जाते है। लेकिन मतलब सिर्फ इतना है कि जिसके पास अपना संकल्प है, उसे परमात्मा का सारा संकल्पल तत्का्ल उपलब्ध् हाँ जाता है। तो अगर परमात्मा के हाथ उसे मिल जाते हे, तो कोई आश्चंर्य नहीं।
तो मैंने कहा, और मैं फिर कहता हूं, द्रौपदी नग्न की गई, लेकिन हुई नहीं। नग्न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार था, फल का अधिकार नहीं था।
यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्म पड़े है शय्या पर—बाणों की शय्या पर—और कृष्ण कहते है पांडवों को कि पूछ लो धर्म का राज, और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी पूरे महाभारत पर छाई हे। वह हंसती है कि इनसे पूछते है धर्म का रहस्य, जब में नग्न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। उसका व्यंग गहरा है। वह स्त्री बहुत असाधारण हे।
काश, हिंदुस्ताहन की स्त्रियों ने सीता को आदर्श न बना कर द्रौपदी को आदर्श बनाया होता तो हिंदुस्तान की स्त्री की शान और होती।
लेकिन नही, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है। खो गई। एक तो पाँच पतियों की पत्नी है। इसलिए मन को पीड़ा होती है। लेकिन एक पति की पत्नी होना भी कितना मुश्किकल है, उसका पता नहीं है। और जो पाँच पतियों को निभा सकती हे, वह साधारण स्त्री नहीं है। असाधारण है, सुपरह्मन हे। सीता भी अतिमानवीय है लेकिन टू ह्मन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, लेकिन सुपर ह्यूमन के अर्थों में।
पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी न ही प्रशंसा दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे भारत के इतिहास में डाक्टर राम मनोहर लोहिया को छोड़कर किसी आदमी ने द्रौपदी को सम्मान नहीं दिया है। हैरानी की बात है मेरा तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पाँच हजार साल के इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तैयार है।
गहरा चिन्तन। आभार।
बहुत ही अच्छी बात कही है ओशो ने ..
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achchi khabar banai hai aapne
pranam
osho ka itna vrihat vichaar man ki gehraai ko chu jata hai