" मेरा पूरा प्रयास एक नयी शुरुआत करने का है। इस से विश्व- भर में मेरी आलोचना निश्चित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता "

"ओशो ने अपने देश व पूरे विश्व को वह अंतर्दॄष्टि दी है जिस पर सबको गर्व होना चाहिए।"....... भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, श्री चंद्रशेखर

"ओशो जैसे जागृत पुरुष समय से पहले आ जाते हैं। यह शुभ है कि युवा वर्ग में उनका साहित्य अधिक लोकप्रिय हो रहा है।" ...... के.आर. नारायणन, भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति,

"ओशो एक जागृत पुरुष हैं जो विकासशील चेतना के मुश्किल दौर में उबरने के लिये मानवता कि हर संभव सहायता कर रहे हैं।"...... दलाई लामा

"वे इस सदी के अत्यंत अनूठे और प्रबुद्ध आध्यात्मिकतावादी पुरुष हैं। उनकी व्याख्याएं बौद्ध-धर्म के सत्य का सार-सूत्र हैं।" ....... काज़ूयोशी कीनो, जापान में बौद्ध धर्म के आचार्य

"आज से कुछ ही वर्षों के भीतर ओशो का संदेश विश्वभर में सुनाई देगा। वे भारत में जन्में सर्वाधिक मौलिक विचारक हैं" ..... खुशवंत सिंह, लेखक और इतिहासकार

Archive for अक्तूबर 2010

"मैं यहां इस लिये नहीं हूं कि तुम मुझे समझ सको। मैं यहां इसलिये हूं कि तुम स्वयं को समझ सको।

तुम्हें अपने कृत्यों, अपने संबंधों, अपनी भावदशाओं के प्रति सजगता से जागरूक होना है: जब

तुम अकेले हो तो तुम्हारा व्यवहार कैसा है, जब लोगों के साथ हो तो कैसे व्यवहार करते हो,

कैसी होती है तुम्हारी प्रतिक्रिया; क्या तुम्हारी प्रतिक्रिया अतीत से प्रेरित होती है और

तुम्हारे विचार जड़ ढांचे से निकलते हैं या कि तुम सहज होते हो, विश्वसनीय होते

हो। इन सब बातों के लिये जागरूक हो जाओ; अपने मन, अपने हृदय के बारे में

जागरूक हो जाओ। यही सब समझने योग्य है, यही वो पुस्तक है जिसे

खोलना है; अन्यथा तुम एक बंद किताब हो।"

ओशो

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"मैं पंडितों के किसी वर्ग से संबंधित नहीं हूं। मेरा संपूर्ण जीवन एक ही मौलिक सत्य पर आधारित है,

जिसे अनसीखा करना कहा जा सकता है। जो भी समाज ने मुझे स्कूल,कॉलेज या यूनीवर्सिटी

के माध्यम से जबरदस्ती सिखाया है, उसे अनसीखा करना ही मेरा कार्य है, कैसे इस

कूड़े-कर्कट, इस कबाड़, इस हर तरह की गंदगी से स्वयं को साफ कर सकूं।

मैं कोई पंडित नहीं हूं। शायद मैं विश्वभर में सर्वाधिक अनपढ

व्यक्ति हूं। आज की मानव जाती से समादर करवाना

मैं कतई पसंद नहीं करूंगा। इसके पास न

तो वह विवेक है न वह हृदय

न वह आत्मा ।"


ओशो

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"मैं यहां तुम्हारे मुखौटे को नष्ट करने के लिये और तुम्हें तुम्हारी निजता लौटाने के लिये हूं।

मैं तुम पर कोई धर्म नहीं लाद रहा। मैं तुम्हें यहां पूर्णतया निर्भार कर देने के

लिये हूं - बिना किसी धर्म, बिना किसी मत के - बस एक

गहरा मौन, शांति, गहराई और ऊंचाई

जो सितारों तक जाती है।"


ओशो

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"मेरा कार्य गौतम बुद्ध के कार्य से बिलकुल भिन्न है। उनका कार्य मेरे दर्शन का एक छोटा सा हिस्सा है।

मैं चाहता हूं कि व्यक्ति संबोधी को प्राप्त हो, लेकिन मैं चाहता हूं कि उस व्यक्ति के जागने के

साथ संपूर्ण मनुष्य जाति का उत्थान हो, वे भले उपलब्ध न हों लेकिन इतने जागरूक

तो हो ही जायें कि राष्ट्र मिट जायें,धर्म मिट जायें,जातियां मिट

जायें और हम एक धरती पर एक मानवता

की तरह जी सकें।"

ओशो

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"तुम्हें बस यह चाहिये कि तुम मौन हो जाओ और अस्तित्व को सुनो। न किसी धर्म की ज़रूरत है न किसी

परमात्मा की। न किसी धर्मगुरु की ज़रूरत है न किसी संस्था की। व्यक्ति में मेरा पूर्ण विश्वास है।

आज तक व्यक्ति में इस तरह किसी ने विश्वास नहीं किया। तो इन सब बातों को हटाया

जा सकता है। अब तुम्हारे पास बची है केवल ध्यान की अवस्था, जिसका

अर्थ है पूर्ण मौन। ध्यान शब्द भी इसे बोझीला बना देता है।

बेहतर है इसे सरल, निर्दोष मौन कहें।"

ओशो

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"मैं यहां तुम्हें कोई सिद्धांत देने के लिये नहीं हूं। सिद्धांत तुम्हें आश्वस्त करता है। मैं तुम्हें भविष्य

के लिये कोई वादा देने के लिये नहीं हूं -भविष्य का वादा तुम्हें सुरक्षा में ले जाता है। मैं यहां

तुम्हें सजग व सचेत करने के लिये हूं। अर्थात: यहीं और अभी, उन सभी असुरक्षाओं

के साथ जिन्हें हम जीवन कहते हैं; उन सभी अनिश्चितताओं के साथ

जिसे हम जीवन कहते हैं; उन सभी जोखिमों के साथ

जिसे हम जीवन कहते हैं।"

ओशो

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"मैं यहां किन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिये नहीं अपितु तुम्हारे भीतर एक विशिष्ट गुणवत्ता

पैदा करने के लिये हूं। मैं तुम्हें कुछ समझाने के लिये नहीं बोल
रहा, मेरा बोलना बस

एक सृजनात्मक घटना है। मेरा बोलना तुम्हें
कुछ समझाने का प्रयास नहीं

वह तो तुम किताबों से भी
समझ सकते हो और इस के अतिरिक्त

लाखों अन्य
तरीकों द्वारा यह संभव है - मैं तो यहां

केवल
तुम्हें रूपांतरित करने के

लिये हूं।"



ओशो

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1937 में तिब्‍बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्‍थर के रिकार्ड मिले है—पत्‍थर के।

आकार में वे रिकार्ड है महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्‍चर्य के है, क्‍योंकि वे रिकार्ड ठीक वैसे ही है जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है, और पत्‍थर पर ग्रूव्‍ज है। जैसे की ग्रामोफोन के रिकार्ड पर होते है। अब तक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाये जा सकेंगे।

लेकिन एक बात तो हो गई है— रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डा. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित कर दिया है कि वे है तो रिकार्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्‍यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे। वह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्‍थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता है।

सात सौ सोलह है। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हे। सब पर ग्रूव्‍ज है और उनकी पूरी तरह सफाई धूल-ध्वांस जब अलग कर दि गयी और जब विधूत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरान हुई, उनसे प्रति पल विद्धुत की किरणें विकिरणित हो रही है।

लेकिन क्‍या आदमी के आज से बाहर हजार साल पहले ऐसी कोई व्‍यवस्‍था थी कि वह पत्‍थरों में कुछ रिकार्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना होगा।

ओशो

महावीर वाणी

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"गुरू हमेशा एक मित्र होता है लेकिन उसकी मित्रता में बिलकुल अलग सी सुगंध होती है। इसमें मित्रता

कम मित्रत्व अधिक होता है। करुणा इसका आंतरिक हिस्सा होती है। वह तुम्हें प्रेम करता है

क्योंकि और कुछ वह कर नहीं सकता। वह अपने अनुभव तुम्हारे साथ बांटता है क्योंकि


वह देख पाता है कि तुम उसे खोज रहे हो, तुम उसके लिये प्यासे हो।


वह अपने शुद्ध जल के झरने तुम्हारे लिये उपलब्ध करवाता है।


वह आनंदित होता है और अनुग्रहीत होता है यदि तुम


उसके प्रेम के, मित्रता के, सत्य के उपहार


स्वीकार करते हो।"


ओशो

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"लोग मुझसे पूछते हैं, "पूरा विश्व आपके विरोध में क्यों है?" विश्व मेरे विरोध में नहीं, मैं संसार

विरोधी हूं, क्योंकि मैने सत्य को चुना है। और मैं वही कहूंगा जो पूर्णतः

मेरा अनुभव है।मैं किसी भी तरह का समझौता नहीं

करूंगा, किसी भी कारण से नहीं।"


ओशो

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"मैं तुम्हें अपनी विचारधारा से सहमत करवाने में उत्सुक नहीं हूं - मेरी कोई विचारधारा है भी नहीं। दूसरी बात, मेरा मानना है कि किसी को परिवरतित करने का प्रयत्न ही हिंसा है, यह उसकी निजता में, उसके अनूठेपन में, उसकी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना है।"

ओशो

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आप सभी पाठको को एवं आपके परिवार को

विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें


ओशो रजनीश

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"मैं यहां किसी की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये नहीं हूं। और ऐसा मैं क्यों करूं?...मैं यहां केवल अपने लिये हूं। मैं कोई मसीहा नहीं और न ही मैं यहां किसी को पाप-मुक्त करने के लिये हूं। मुझे यहां कोई धर्मयुग नहीं लाना है। ये सभी बातें घिसी-पिटी व मूढ़्तापूर्ण हैं।"

ओशो

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परिवर्तन संसार का नियम है, और सभी को समय के साथ अपने को परिवर्तित करना होता, अतः इसी के तहत
अब से इस ब्लॉग पर ओशो द्वारा कहे गए शब्द, जो कि पूरी पोस्ट के रूप में न होकर छोटी - छोटी पंक्तियों के रूप में होंगे, प्रकाशित किये जायेंगे । समय समय पर आपको पूरी पोस्ट भी पढने के लिए मिलेगी ।

ऐसा इसलिए किये जा रहा है क्योंकि इस ब्लॉग पर नई पोस्ट को अपडेट होने में २-३ दिनों तक का वक्त लग जाता है । अतः ओशो द्वारा कहे गए इन शब्दों को आप ऐसा समझे जैसे कोई दैनिक विचार, बस इन विचारो को दिन में ३ या ४ बार भी प्रकाशित किया जा सकता है, इन शब्दों के साथ ओशो के चित्र प्रकाशित नहीं किये जायेंगे । पूर्व की तरह आपको नई पोस्ट भी पढने को मिलती रहेगी ।

आशा है आप लोग इसको पसंद करेंगे और अपना प्यार व् सहयोग बनाये रखेंगे ।

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संत जग जीवन दास, जग जीवन को समझाने की क्षमता सब में नहीं है। जो लोग प्रेम को समझने में समर्थ है, जो उस में खो जाने को तैयार है, मिटने को तैयार है, वही उस का आनंद अनुभव कर सकेगें। शायद समझ बुझ यहाँ थोड़ी बाधा ही बन जाये।

जग जीवन प्रमाण नहीं दे सकते, गीत गा सकते है और गीत भी काव्‍य के नियमों के अनुसार नहीं होगा, छंद वद्ध नहीं होगा। उसके तुक नहीं मिले होगें। शायद शब्‍द भी अटपटे हो पर यह रास्‍ता अति मधुर और सुंदर अवश्‍य हो, एक पहाड़ी रास्‍ते की तरह, जो उबड़ खाबड़ हो, कष्‍ट कांटों से भरा हो, ऊँचा नीचा हो, पर उस का सौंदर्य देखते ही बनता है। नहीं पद चाप मिलेंगे वहां मुसाफ़िरों के, पर अद्भुत होगा वह मार्ग।

गांव के बिना पढ़े लिखें थे जग जीवन, गांव की सादगी, मिलेगी, सरलता मिलेगी। छंद मात्राओं की फिक्र मत करना। नहीं तो चुक जाओगे बहुत कुछ सार रह जाये छंदो की जाली में, और असार ही तुम्‍हारे पास रह जायेगा। जैसे गांव के लोग गीत गाते है। ऐसे वे गीत है।

जग जीवन का काम था गाय बैल चराना, गरीब के बेटे थे। बाप किसान थे—छोटा-मोटा किसान। और बेटे का काम था कि गाय बैल चरा लाना। न पढ़ने का मौका मिला न पढ़ने का सवाल उठा। तो जैसे गाय-बैल चराने वाले लोग भी गीत गाते है….गीत तो सबका है। कोई विश्‍वविद्यालय से शोध कर ऊपर उपाधि लेकर आने पर ही गीत गाने का हक नहीं होता।

जग जीवन के जीवन का प्रारंभ वृक्षों से होता है, झरनों से नदियों से, गायों से, बैलों से। चारों तरफ प्रकृति छायी रही होगी। और जो प्रकृति ने निकट हो वह परमात्‍मा के निकट हे। जो प्रकृति से दूर है वह परमात्‍मा से भी दूर है।

अगर आधुनिक मनुष्‍य परमात्‍मा से दूर पड़ रहा है रोज-रोज, तो उसका कारण मनुष्‍य में नास्तिकता बढ़ रही है यह नहीं है । आदमी जैसा है वैसा ही है। पहले भी नास्‍तिक हुए है। और एक से एक हुए है जिनके उपर और कुछ जोड़ नहीं जा सकता। चार्वाक ने जो कहा है, तीन हजार साल पहले, न उसमे आप कुछ न जोड़ पाओगे जो कहना था सब कह दिया। दिदरो, मार्क्‍स, माओ चार्वाक के शास्‍त्र में कुछ जोड़ नहीं पाये है। प्रकृति और आदमी के बीच जो संबंध टुट गया, लोहा और सीमेंट— उसमें आदमी घिर गया। उसमें फूल नहीं खिल सकते है।

जग जीवन का जीवन प्रारंभ हुआ प्रकृति के साथ। कोयल के गीतों के साथ,पपीहा की पुकार सुनी होगी। चातक को टकटकी लगाये चाँद को देखते देखा होगा। चमत्‍कार देखे होंगे कि वर्षा आती है और सूखी पड़ी हुई पहाडियाँ हरी हो जाती है। गाय बैलों के संग वैसे ही हो गये। याद रखना हम जिस का संग करेंगे जाने अनजान हम उसकी और झुकने लग जाते है। सरल, निर्दोष,गैर महत्‍वकांशी। गाय को तो भूख लगती है तो घास चरती है। थक जाती है तो सो जाती है। बजाते होंगे बांसुरी, जब गाय बैल चरती होंगी तो जग जीवन बांसुरी बजाते होंगे।

बैठे-बैठे झाड़ों के नीचे जग जीवन को कुछ रहस्‍य अनुभव हुए होगें। क्‍या है यह सब रात आकाश के नीचे, घास पर लेट कर तारों का देखना, आ गई होगी परमात्‍मा की। जब तुम पतझड़ में खड़े सूखे वृक्षों को फिर से हरा होते देखते हो, फैलने लगती है हरियाली, उतर आता है परमात्‍मा चारों और प्रकृति के साथ हम भी कैसे हरे-भरे हो जाते है। परमात्‍मा शब्‍द परमात्‍मा नहीं है। रहस्‍य की अनुभूति में परमात्‍मा है।

परमात्‍मा क्‍या है? इस प्रकृति के भीतर छिपे हुए अदृश्‍य हाथों का नाम: जा सूखे वृक्षों पर पतिया ले आता है। प्‍यासी धरती के पास जल से भरे मेघ ले आता है। पशु पक्षियों की भी चिंता करता है। अगोचर है, अदृश्य है, फिर भी उसकी छाप हर जगह दिखाई दे जाती है। इतना विराट आयोजन करता है। पर देखिये उस की व्‍यवस्‍था, सुनियोजित ढंग से। प्रकृति का नियम कहो, कि कहो परमात्‍मा।

और एक दिन अनूठी घटना घटी। चराने गये थे गाय-बैल को, दो फकीर— दो मस्‍त फकीर वहां से गूजरें। उनकी मस्‍ती ऐसी थी कि कोयलों की कुहू-कुहू ओछी पड़ गई। पपीहों की पुकार में कुछ भी खास नहीं रहा। गाय की आंखे देखी थी, गहरी थी, मगर उन आंखों के सामने कुछ भी नहीं। झीलें देखी थी, शांत थीं, मगर वह शांति कुछ और ही थी। यह किसी और ही लोक की शांति दर्शा रहीं थी। यह पारलौकिक थी।

बैठ गये उनके पास वृक्ष के नीचे महात्‍मा सुस्‍ताने थे। उनमें एक था, बाबा बुल्ला शाह— एक अद्भुत फकीर, जिसके पीछे दीवानों का मस्‍तानों का एक पंथ चला। बावरी, दीवाना था पागल था। थोड़े से पागल संत हुए है। इतने प्रेम में थे कि पागल हो गये। ऐसे मस्‍त थे कि डगमगा कर चलने लगे। जैसे शराब पी रखी हो— शराब जो ऊपर से उतरती है। शराब जो अनंत से आती है।

कहते है बुल्‍लेशाह को जो देखता था दीवाना हो जाता था। जग जीवन राम भी दिवाने हो गये। मां बाप अपने बच्‍चों को बुल्‍लेशाह के पास नहीं जाने देते थे। जिस गांव में बुल्‍लेशाह जाते, लोग अपने बच्‍चो को छुप लेते थे। खबरें थी की वह दीवाना ही नहीं है, उसकी दीवानगी संक्रामक है। उसके पीछे बावरी पथ चला, पागलों का पंथ।

पागल से कम में परमात्‍मा मिलता भी नहीं। उतनी हिम्‍मत तो चाहिए ही। तोड़कर सारा तर्क जाल, छोड़ कर सारी बुद्धि ,छोड़ दे सारी बुद्धि-बद्धिमत्ता डूबा, कर सब चतुराई चालाकी जो चलते है, वह ही पहुंचते है। उन्‍हीं को पागल कहते है लोग, दीवाना कहते है।

एक था बुल्लेशाह और दूसरा था गोविंद शाह: बुल्‍लेशाह के ही एक संगी-साथी। दोनों मस्‍त बैठे थे। जग जीवनी भी बैठ गया। छोटा बच्‍चा था। बुल्‍लेशाह ने कहा: बेटे आग की जरूरत है थोड़ी आग ला दे।

वह भागा। इसकी ही प्रतीक्षा करता था कि कोई आज्ञा मिल जाये, कोई सेवा का मौका मिल जाए। आग ही नहीं लाया जीवन राम, साथ में दुध की एक मटकी भी साथ में भर लाया। भूखे होंगे, प्‍यासे होंगे। दोनों ने अपने हुक्का जलाये। दुध ले आया तो दूध पिया। लेकिन बुल्‍लेशाह ने जग जीवन को कहा कि दूध तो तू ले आया पर मुझे तो ऐसा लगता है तू बिना बताये, चुप से ले आया है।

बात थी भी सच। जग जीवन चुपचाप दूध ले आया था, माता को कहां भी नहीं था। शायद घर पर कोई नहीं होगा। कहने का मौका नहीं मिला होगा। थोड़ी ग्‍लानि अनुभव करने लगा था। थोड़ा अपराध अनुभव करने लगा था। बुल्ला शाह ने कहा: घबड़ा मत। जरा भी चिंता मत कर, जो देता है उसे बहुत मिलता है।

वे तो दोनों फकीर आगे की और चले गये। जग जीवन सोचता रहा की घर जाकर मां को क्‍या जवाब दूँगा। और फकीर क्‍या कह गये थे जो देता उसे बहुत मिलता है। घर पहुंचा, जाकर उघाड़ कर देखी मटकी, जिसमे से अभी दूध भर कर ले गया था। आधा दूध तो ले गया था, मटकी आधी खाली छोड़ गया था। लेकिन मटकी तो पूरी की पूरी भर गयी है।

यह तो प्रतीक कथा है, सांकेतिक है। यह कहती है जो उसके नाम में देते है, उन्‍हें बहुत मिलता है। देने वाले पाते है, बचाने वाले खो जाते है। या मां का व्‍यवहार में कुछ ऐसा अप्रत्याशित घट गया होगा की बेटा जब देना ही था तो मटकी दूध क्‍या दिया कुछ भोजन भी साथ क्‍यों न ले गया। मुझे बताता में भोजन परोसती। यानि जग जीवन को देने के बाद जो पश्‍चाताप था, जो ग्लानी थी चोरी की उसके बदले जो मिलने की उम्‍मीद थी उसके बदले कुछ ऐसा हुआ जिस की वो कल्‍पना नहीं करता था। जो देता है उसे और मिलता है….

घर के व्‍यवहार को देख कर— यानि मटकी भरी देख कर, उसे लगा की यह तो अपूर्व लोग थे। भागा। फ़क़ीरों के पीछे, भागता ही रहा, रुका नहीं खोजता ही रहा, मीलों दूर जाकर फ़क़ीरों को पकड़ा। जानते हो क्‍या मांगा। बुल्‍लेशाह से कहा, मेरे सर पर हाथ रख दो। सिर्फ मेरे सर पर हाथ रख दें। जैसे मटकी भर गई है। ऐसे मैं भी भर जाऊँ ऐसा आर्शीवाद दे दें। मुझे अपना चेला बना लो।

छोटा बच्‍चा था, बहुत समझाने की कोशिश की बुल्ला शाह ने, लौट जा। अभी उम्र नहीं है तेरी। अभी समय नहीं आया है। लेकिन जग जीवन राम नहीं मानें। मैं छोड़ूगा नहीं पीछा। हाथ रखना पडा बुल्‍लेशाह को।

गुरु हाथ रखता है जब तुम पीछा छोड़ते ही नहीं। और तब ही हाथ रखने का मूल्‍य है। और कहते है क्रांति घट गई। जो महावीर को बारह साल तप के बाद मिला या बुद्ध को छह साल के बाद मिला वह जग जीवन को हाथ रखते ही क्रांति घट गई। काया पलट गई, चोला कुछ से कुछ हो गया। ऐसी क्रांति तब हो सकती है जब मांगने वाले ने सच में ही मांगा हो। यू ही औपचारीक बात न रही होगी। परिपूर्णता से मांगा हो, रोएं-रोएं से मांगा हो। मांग ही हो, समग्रता में, भर गई हो। रच बस गई हो। प्‍यास ही बाकी रह गई हो। भीतर कोई दूसरा विवाद न बचा हो। निस्‍संदिग्‍ध मांगा हो। मेरे सिर पर हाथ रख दें। मुझे भर दें, जैसे मटकी भर गई।

छोटा बच्‍चा था, न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे कहता हूं की अकसर सीधे सरल लोगो को जो बात सुगमता से घट जाती है। वह बुद्धि से भरे लोगो के लिए समझना कठिन है।

उस दिन बुल्लेशाह ने ही हाथ नहीं रखा जग जीवन पर बुल्ला शाह के माध्‍यम से परमात्‍मा का हाथ जग जीवन के सर आ गया। टटोल तो रहा था, तलाश तो रहा थी। बच्‍चे की ही तलाश थी। कोई रहस्‍य आवेष्‍टित किये है सब तरफ से इसकी प्रतीति होने लगी थी।

आज जो अचेतन में जगी हुई बात थी। चेतन हो गई। जो कल तक कली थी। बुल्‍लेशाह के हाथ रखते ही फूल हो गया। रूपांतरण क्षण में हो गया। कुछ प्रतीक दे जायें। याद आयेगी बहुत स्‍मरण होगा तुम्‍हारा। कुछ और तो न था, बुल्‍लेशाह ने अपने हुक्के में से एक सूत का धागा खोल कर काला धागा, वह दायें हाथ पर बाँध दिया। और गोविंद दास ने भी अपने हुक्‍के का एक सफेद दागा खोल कर बायें हाथ पर बाँध दिया।

जग जीवन को मानने वाले लोग जो सत्य नामी कहलाते है— थोड़े से लोग— वे अभी भी अपने दायें हाथ पर काला और बायें पर सफेद धागा बाँधते है। मगर उसमें अब कुछ सार नहीं है। कितने ही बाँध लो उनसे कुछ होने वाला नहीं है। वह तो जग जीवन ने मांगा था, उसमें कुछ था। और बुल्‍ले शाह ने बांधा था, न तो तुम जग जीवन हो और न बुल्‍ले शाह। इस तरह के मुर्दा प्रतीकों हम हमेशा ढोते रहते हे। यही धर्म का प्रतीक बन जाते है। सचाई तो दब कर मर जाती है।

मतलब कि काले और सफेद धागे दोनों ही बंधन है। पाप भी बंधन है, पूण्‍य भी बंधन है। सफेद पूण्‍य और काला पाप। यह उनका मौलिक जीवन मंत्र था।

उसी दिन से जग जीवन शुभ-अशुभ से मुक्‍त हो गये। उन्‍होंने घर भी नहीं छोड़ा। बड़े हुए, पिता ने कहा शादी कर लो। तो शादी भी कर ली, गृहस्‍थ हो गए। कहां जाना है? भीतर जाना है। बहार कोई यात्रा नहीं है। काम-धाम में लगे रहे और सबसे पार और अछूते बने रहे—जल में कमल वत।

ऐसे गैर पढ़े लिखे लेकिन असाधारण दिव्‍य पुरूष के विरल ही होते है। जग जीवन विरल है। इन्‍हें समझने के लिए आपको दानों किनारों के पास जाना होगा।

फिर नजर में फूल महकें दिल में फिर शम्‍एं जली।

फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम।।

जिसके भीतर प्‍यास है उन्‍हें तो इस तरह की यात्राओं की बात ही बस पर्याप्‍त है।


ओशो

नाम सुमिर मन बावरे

1 अगस्‍त 1978,

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1910 में जर्मनी की एक ट्रेन में एक पन्‍द्रह-सोलह वर्ष का युवक बैंच के नीचे छिपा हुआ था। उसके पास टिकट नहीं था। वह घर से भाग खड़ा हुआ है। उसके पास पैसा भी नहीं है। फिर तो बाद में वह बहुत प्रसिद्ध आदमी हुआ और हिटलर ने उसके सर पर दो लाख मार्क की घोषणा की कि जो उसका सिर काट लाये। वह तो फिर बहुत बड़ा आदमी हुआ और उसके बड़े अद्भुत परिणाम हुए, और स्टैलिन और आइंस्टीन और गांधी सब उससे मिलकर बहुत आनंदित हुए। उस आदमी का बाद में नाम हुआ—वुल्फस मैसिंग। उस दिन तो उसे कोई नहीं जानता था, 1910 में।

वुल्फस मैसिंग ने अभी अपनी आत्‍म कथा लिखी है जो रूस में प्रकाशित हुई है। और बड़ा समर्थन मिला है। अपनी आत्‍मकथा उसने लिखी है—‘’अबाउट माई सैल्फ’’। उसने उसमें लिखा है। कि उस दिन मेरी जिंदगी बदल गई। उस ट्रेन में नीचे के फर्श पर छिपा हुआ पडा था बिना टिकट के कारण। मैसिंग ने लिखा कि वे शब्‍द मुझे कभी नहीं भूलते— टिकट चेकर का कमरे में प्रवेश, उसके जूतों की आवाज और मेरी श्वास का ठहर जाना और मेरी घबराहट और पसीने का छूट जाना, ठंडी सुबह, और फिर उसका मेरे पास आकर पूछना—यंग मैन, यौर टिकट?

मैसिंग के पास तो टिकट नहीं था। लेकिन अचानक पास में पडा हुआ एक कागज का टुकडा— अख़बार का रद्दी टुकडा मैसिंग ने हाथ में उठा लिया। आँख बंद की और संकल्‍प किया कि यह टिकट है, और उसे उठाकर टिकट चेकर को दे दिया। और मन में सोचा कि है भगवान, है परमात्‍मा, उसे टिकट दिखाई पड़ जाये। टिकट चेकर ने उस कागज को पंक्चर किया, टिकट वापिस लौटायी और कहा— व्‍हेन यू हैव गाट दि टिकट, व्‍हाई यू आर लाइंग अंडर दि सीट? पागल हो, जब टिकट तुम्‍हारे पास है तो नीचे क्‍यों पड़े हो। मैसिंग को खुद भी भरोसा नहीं आया। लेकिन इस घटना ने उसकी पूरी जिंदगी को बदल दिया। इस घटना के बाद पिछली आधी सदी में पचास वर्षों में जमीन पर सबसे महत्‍वपूर्ण आदमी था उसे घारण के संबंध में सर्वाधिक अनुभव था।

मैसिंग की परीक्षा दुनिया में बड़े-बड़े लोगों न ली। 1940 में एक नाटक के मंच पर जहां वह अपना प्रयोग दिखला रहा था— लोगों में विचार संक्रमित करने का— अचानक पुलिस ने आकर मंच का पर्दा गिरा दिया और लोगों से कहां कि वह कार्यक्रम समाप्‍त हो गया। क्‍योंकि मैसिंग गिरफ्तार कर लिया गया है। मैसिंग को तत्‍काल बंद गाड़ी में डाल कर क्रेमलिन ले जाया गया और स्टैलिन के सामने मौजूद किया गया। स्टैलिन ने कहा—मैं मान नहीं सकता कि किसी व्‍यक्‍ति को दूसरे कि धारण को सिर्फ आंतरिक धारणा से प्रभावित किया जा सकता है। क्‍योंकि अगर ऐसा हो सकता है तो फिर आदमी सिर्फ पदार्थ नहीं रह जाता। तो मैं तुम्‍हें इसलिए पकड़कर बुलाया हूं कि तुम मेरे सामने सिद्ध करो।

मैसिंग ने कहा— आप जैसा भी चाहें। स्टैलिन ने कहा कि कल दो बजे तक तुम यहां बंद हो। दो बजे आदमी तुम्‍हें ले जाएंगे मॉस्को के बड़े बैक में। तुम क्लर्क को एक लाख रूपया सिर्फ धारणा के द्वारा निकलवा कर ले आओ।

पूरा बैंक मिलिट्री से घेरा हुआ था। दो आदमी पिस्‍तौलें लिए हुए मैसिंग के पीछे, ठीक दो बजे उसे बैंक में ले गये। उस कुछ पता नहीं था कि किस काउंटर पर उसे ले जाया जाएगा। जाकर ट्रैज़रर के सामने उसे खड़ा कर दिया, और उसने एक कोरा कागज उन दो आदमियों के सामने निकाला। कोरे कागज को दो क्षण देखा। ट्रैज़रर को दिया, और एक लाख रुबल। ट्रैज़रर ने कई बार उस कागज को देखा,चश्‍मा लगाया, वापस गौर से देखा और फिर एक लाख, एक लाख रुबल निकालकर मैसिंग को दे दिया। मैसिंग ने बैग में वे पैसे अंदर रखे। स्टैलिन को जाकर रूपये दे दिये। स्टैलिन को बहुत हैरानी हुई।

वापस मैसिंग लौटा। जाकर क्‍लर्क के हाथ में वह रूपये वापस दिये और कहा— मेरा कागज वापस लौटा दो। जब क्लर्क ने वापस कागज देखा तो वह खाली था। जब क्‍लर्क ने वह खाली कागज देखा तो उसे हार्ट अटेक का दौरा पड़ गया और वह वहीं नीचे गिर पडा। वह बेहोश हो गया। उसकी समझ के बाहर हो गयी बात, कि क्‍या हुआ।

लेकिन स्टैलिन इतने से राज़ी नहीं हुआ। कोई जालसाजी हो सकती है। कोई क्‍लर्क और उसके बीच तालमेल हो सकता है। तो क्रेमलिन के एक कमरे में उसे बंद किया गया। हजारों सैनिकों का पहरा लगाया गया और कहा गया कि ठीक बारह बज कर पाँच मिनिट पर वह सैनिकों के पहरे के बहार हो जाये। वह ठीक बारह बज कर पाँच मिनट पर बाहर हो गया। सैनिक अपनी जगह खड़े रहे, वह किसी को दिखाई नहीं पडा। वह स्टैलिन के सामने जाकर मौजूद हो गया।

इससे भी स्टैलिन को भरोसा नहीं आया। और भरोसा आने जैसा नहीं था। क्‍योंकि स्टैलिन की पूरी फ़लसफ़ी पूरा चिंतन, पूरे कम्‍यूनिज़म की धारणा, सब बिखरती हे। यही एक आदमी कोई धोखा-धड़ी कर दे और सारा का सारा मार्क्‍स का चिंतन अधर में लटक जाये, लेकिन स्टैलिन प्रभावित जरूर हुआ, उसने तीसरे प्रयोग के लिये प्रार्थना की।

उसकी दृष्‍टि में जो सवार्धिक कठिन बात हो सकती था, वह यह थी— उसने कहा कि कल रात बारह बजे मेरे कमरे में तुम मौजूद हो जाओ। बिना किसी अनुमति पत्र के। यह सर्वाधिक कठिन बात थी। क्‍योंकि स्टैलिन जितने गहरे पहरे में रहता था। उतना पृथ्‍वी पर दूसरा कोई आदमी कभी नहीं रहा। पता भी नहीं होता था कि स्टैलिन किस कमरे में है, क्रेमलिन के। रोज कमरा बदल दिया जाता था। ताकि कोई खतरा न हो, कोई बम न फेंक दे, कोई हमला न कर दे।

सिपाहियों की पहली कतार जानती थी कि पाँच नंबर कमरे में है। दूसरी कतार जानती थी कि छह नंबर कमरे में है। तीसरी कतार जानती थी कि आठ नंबर कमरे में है। अपने ही सिपाहियों से भी बचने कि जरूरत थी क्रेमलिन को। कोई पता नहीं होता था कि स्टैलिन किस कमरे में है। स्टैलिन की खुद पत्‍नी को भी पता नहीं होता था कि स्टैलिन किस कमरे में है। स्टैलिन के सारे कमरे, जिन में स्टैलिन रहता था। करीब-करीब एक जैसे थे। जिनमें वह कहीं भी किसी भी क्षण हट सकता था। सारा इंतजाम हर कमरे में था।

ठीक रात बारह बजे पहरेदार पहरा देते रहे और मैसिंग जाकर स्टैलिन की मेज के सामने खड़ा हो गया। स्टैलिन भी कंप गया। और स्टैलिन ने कहा—तुमने यह किया कैसे? यह असंभव है।

मैसिंग ने कहा— मैं नहीं जानता। मैंने कुछ ज्‍यादा नहीं किया मैंने सिर्फ एक ही काम किया कि मैं दरवाजे पर आया और मैंने कहा कि आई एम् बैरिया। बैरिया रूसी पुलिस का सबसे बड़ा आदमी था। स्टैलिन बे बाद नंबर दो की ताकत का आदमी था। बस मैंने सिर्फ इतना ही भाव किया कि मैं बैरिया हूं। और तुम्‍हारे सैनिक मुझे सलाम बजाने लगे। और मैं भीतर आ गया।

स्टैलिन ने सिर्फ मैसिंग को आज्ञा दी कि वह रूस में धूम सकता है। और प्रमाणिक हे। 1940 के बाद रूस में इस तरह के लोगों की हत्‍या नही की जा सकी तो वह सिर्फ मैसिंग के कारण। 1940 तक रूस में कई लोग मार डाले गये थे, जिन्‍होंने इस तरह के दावे किये थे। कार्ल आटो विस नाम के एक आदमी की 1937 में रूस में हत्‍या की गई, स्टैलिन की आज्ञा से। क्योंकि वह भी जो करता था वह ऐसा था कि उससे कम्यूनिज़म की जो मैटिरियालिस्‍ट— भौतिकवादी धारणा है, वह बिखर जाती है।

अगर धारणा इतनी महत्‍वपूर्ण हो सकती है तो स्टैलिन ने आज्ञा दी अपने वैज्ञानिकों को कि मैसिंग की बात को पूरा समझने की कोशिश करो, क्‍योंकि इसका युद्ध में भी उपयोग हो सकता है। और जो आदमी मैसिंग के अध्‍ययन से निकलेगा। क्‍योंकि जिस ने कहा है कह जो अल्‍टीमेट वेपन है युद्ध का, आखिरी जो अस्‍त्र सिद्ध होगा,वह यह मैसिंग के अध्‍ययन से निकलेगा। क्‍योंकि जिस राष्‍ट्र के हाथ में अणुबम हों उनको भी धारणा से प्रभावित किया जा सकता है कि वह अपने ऊपर ही फेंक दें। एक हवाई जहाज बम फेंकने जा रहा हो उसके पायलट को प्रभावित किया जा सकता है। वह वापस लौट जाए। अपनी ही राजधानी पर गिरा दे।

नामोव ने कहा कि दि अल्‍टीमेट वेपन इन वार इज़ गो इंग टु बी साइकिक पावर। यह धारणा की जो शक्ति है, यह आखिरी अस्‍त्र सिद्ध होगा। इस पर रोज काम बढ़ता चला जाता है। स्टैलिन जैसे लोगों की उत्‍सुकता तो निश्‍चित ही विनाश की तरफ होगी। महावीर जैसे लोगों की उत्‍सुकता निर्माण और सृजन की और है।


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काशी नरेश का एक ऑपरेशन हुआ उन्‍नीस सौ दस में। पाँच डाक्‍टर यूरोप से ऑपरेशन के लिए आए। पर काशी नरेश ने कहा कि मैं किसी प्रकार का मादक द्रव नहीं ले सकता। क्‍योंकि मेंने मादक द्रव्‍य लेना छोड़ दिया है। तो मैं किसी भी तरह की बेहोश करने वाली कोई दवा, कोई इंजेक्‍शन, वह भी नहीं ले सकता, क्‍योंकि मादक द्रव मैंने त्‍याग दिये है। न मैं शराब पीता हूं, न सिगरेट पीता हूं, मैं चाय भी नहीं पीता। तो इसलिए ऑपरेशन तो करें आप—

अपेंडिक्‍स का ऑपरेशन था। बड़ा ऑपरेशन होगा कैसे? इतनी भयंकर पीड़ा होगी, और आप चीखे-चिल्‍लाए, उछलने-कूदने लगे तो बहुत मुशिकल हो जाएगी। आप सह नहीं पाएंगे। उन्‍होंने कहा कि नहीं, मैं सह पाऊंगा। बस इतनी ही मुझे आज्ञा दें कि मैं अपना गीता का पाठ करता रहूँ।

काशी नरेश महाराजा श्री सर प्रभु नारायण सिंह बहादुर

तो उन्‍होंने प्रयोग करके देखा पहले। उँगली काटी। तकलीफ़ें दीं, सूइयाँ चुभायीं, और उनसे कहा कि आप अपना…..वे अपना गीता का पाठ करते रहे। कोई दर्द का उन्‍हें पता न चला। फिर ऑपरेशन भी किया गया। वह पहला ऑपरेशन था पूरे मनुष्‍य जाति के इतिहास में, जिसमें किसी तरह के मादक-द्रव्‍य का कोई प्रयोग नहीं किया गया। काशी नरेश पूरे होश में रहे। ऑपरेशन हुआ। डाक्‍टर तो भरोसा न कर सके। जैसे कि लाश पड़ी हो सामने, जिंदा आदमी है कि मुर्दा आदमी हो।

ऑपरेशन के बाद उन्‍होंने पूछा कि यह चमत्‍कार है, आपने किया क्‍या? उन्‍होंने कहा, मैंने कुछ भी नहीं किया। मैं सिर्फ होश संभाले रखा। और गीता पढ़ता रहा, और गीता जब मैं पढ़ता हूं, इसे जन्‍म भर से पढ़ रहा हूं। और गीता जब मैं पढ़ता हूं….. फिर मेरे चारों और क्‍या हो रहा इस की मुझे कुछ फिकर नहीं रहती है। मैं तो स्‍वय में डूब जाता हूं। और एक दीपक जलता रहता है बाहर। और में अपने होश को मात्र संभाले रहता हूं। ओर यही पाठ का अर्थ होता है।

पाठ का अर्थ ऐसा नहीं होता कि बैठे हैं, नींद आ रही है, तंद्रा आ रही है, दोहराए चले जा रहे हैं, मक्‍खी उड़ रही है और गीता का पाठ हो रहा है। पाठ का यह मतलब नहीं होता। पाठ का अर्थ होता है। बड़ी सजगता। कि बस गीता ही रह जाये। उतने ही शब्‍द रह जाये। सारा संसार खो जाए…तो उन्‍होंने कहा, गीता के पाठ से मुझे होश बनता है, जागृति आती है।

बस उसका मैं पाठ जब तक मुझसे भूल चुक नहीं होती। तो मैं उसे दोहराता रहूँ तो फिर शरीर मुझसे अलग है। ना हन्य ते, हन्‍य माने शरीरे। तब मैं जानता हूं कि शरीर को काटो, मारो, तो भी तूम मुझे नहीं मार सकेत। नैनं छिंदंति शस्‍त्राणि। तुम छेदों शस्‍त्रों से तुम मुझे नहीं छेद सकते हो। बस इतनी मुझे याद बनी रही, उतना काफी था, मैं शरीर नहीं हूं।

हां, अगर मैं गीता न पढ़ता होता तो भूल-चूक हो सकती थी। अभी मेरा होश इतना नहीं है कि सहारे के बिना सध जाए। पाठ का यही अर्थ होता है। पाठ का अर्थ अध्‍ययन नहीं होता है, पाठ का अर्थ गीता को दोहरना नहीं है। बड़ा बहुमूल्‍य अर्थ है। अध्‍ययन पाठ का अर्थ है, गीता को मस्‍तिष्‍क से नहीं पढ़ता, गीता को बोध से पढ़ना। और गीता पढ़ते वक्‍त गीता जो कह रही है उसके बोध को संभालना। निरंतर-निरंतर अभ्‍यास करने से, बोध संभल जाता है। पर काशी नरेश को भी डर था, अगर सहारा न लें तो बोध शायद खा जाए।

बुद्ध ने तो कहा है कि शस्‍त्र का भी सहारा न लेना, सिर्फ श्‍वास का सहारा लेना। क्‍योंकि शस्त्र भी जरा दूर है। श्‍वास भीतर जाए, देखना, बाहर जाए, देखना। श्‍वास की जो परिक्रमा चल रही है, श्‍वास की जो माला चल रही है। उसे देखना। इसको बुद्ध ने ‘’आनापानसतीयोग’’ कहा है। श्‍वास का भीतर आना, श्‍वास का बाहर जाना। इसे तुम देखते रहना। श्‍वास नासापुटों को छुए तो तुम वहां मौजूद रहना, गैर मौजूदगी में न छुए।

तुम होश पूर्वक देखना कि श्‍वास ने नासा पुटों को छुआ। ऐसा भीतर कहने की जरूरत नहीं है ऐसा साक्षात्‍कार करना। फिर श्‍वास भीतर चली, श्‍वास के रथ पर यात्रा करना, वह तुम्‍हारे फेफडों में गई और गहरी गयीं। उसने तुम्‍हारे नाभि स्थल को ऊपर उठाया, देखते जाना। उसके साथ ही साथ जाना। छाया की तरह उसका पीछा करना। फिर श्‍वास एक क्षण को रुकी, तुम भी रूक जाना।

फिर श्‍वास वापस लौटने लगीं, तुम भी लौट आना। श्‍वास बाहर चली गई। फिर श्‍वास भीतर आए। इस श्‍वास की परिक्रमा का तुम पीछा करना होश पूर्वक। और श्‍वास की एक और खूबी है। कि श्‍वास तुम्‍हारी आत्‍मा और शरीर का सेतु है। उस से ही शरीर और आत्‍मा जूड़े है। अगर तुम श्‍वास के प्रति जाग जाओ, तो तुम पाओगे की शरीर बहुत पीछे छुट गया है। बहुत दूर रह गया है।

श्‍वास में जाग कर तुम देखोगें तो तुम जानोंगे की तुम अलग हो और शरीर अलग है।

श्‍वास ने ही जोड़ा है। श्‍वास ही तोड़ती है।


ओशो

एस धम्‍मो सनंतनो

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अब जैसे कि हम कहेंगे कि आज बीमारियों का इलाज हो गया है। पुराने लोगों ने इन बीमारियों के इलाज क्‍यों न बता दिये। लेकिन आप हैरान होंगे जानकर कि आयुर्वेद में या युनानी में इतनी जड़ी बूटियों का हिसाब है और इतना हैरानी का है कि जिनके पास कोई प्रयोगशालाएं न थे वे कैसे जाने सके कि यह जड़ी-बूटी फलां बीमारी पर इस मात्रा में काम करेंगी। तो लुकमान के बाबत कहानी है , क्‍योंकि कोई प्रयोगशाला तो थी नहीं, पर यह काम केवल चौथे शरीर से हो सकता था।

लुकमान के बाबत कहानी है कि वह एक-एक पौधे के पास जाकर पुछता था कि बता किस-किस बीमारी में तू काम आ सकता है। अब यह कहानी बिलकुल फिजूल हो गयी आज….कोई पौधे से…क्‍या मतलब इस बात का। लेकिन अभी पचास साल पहले तक हम नहीं मानते थे कि पौधे में प्राण है—इधर पचास साल में विज्ञान ने स्‍वीकार किया— पौधे में प्राण है। इधर तीस साल पहले तक हम नहीं मानते थे कि पौधा श्‍वास लेता है। इधर तीस साल से हमने स्‍वीकार किया है कि पौधा श्‍वास लेता है। अभी पिछले पंद्रह साल तक हम नहीं मानते थे कि पौधा फील (अनुभव) करता है। अभी पंद्रह साल में हमने स्‍वीकार किया है कि पौधा अनुभूति भी करता है।

और जब आप क्रोध से पौधे के पास जाते है, तब पौधे की मनोदशा बदल जाती है। और जब आप प्रेम से पौधे के पास जाते है तो वह प्रेम पूर्ण मनोदशा को महसूस करता है। कोई आश्‍चर्य नहीं की आने वाले पचास सालों में, हम मान ले कि पौधे से बोला भी जा सकता है। यह तो क्रमिक विकास है। और लुकमान सिद्ध हो सही कि उसने पूछा हो पौधों से कि किस काम आते हो। ये मुझे बताओ। लेकिन यह ऐसी बात नहीं है। कि हम सामने बोल सकें, यह चौथे शरीर पर संभव है। यह चौथे शरीर पर जाकर पौधे को आत्‍मसात किया जा सकता है। उसी से पूछा जा सकता है।

और मैं भी मानता हूं क्‍योंकि कोई लेबोरेटरी (प्रयोगशाला) इतनी बड़ी नहीं मालूम पड़ती कि लुकमान लाख-लाख जड़ी-बूटियों का पता बता सके, यह इसका कोई उपाय नही; क्‍योंकि एक-एक जड़ी-बूटी की खोज करने में एक-एक लुकमान की जिंदगी लग जायेगी। वह एक लाख, करोड़ जड़ी-बूटियों के बाबत कह रहा है कि यह इस-इस काम में आयेगी अरे अब विज्ञान उसको कहता है कि हां, वह इस काम में आती है। वे आ रही है इसी काम में।

यह जो सारी की सारी खोज बीन अतीत की है। वह सारी की सारी खोजबीन चौथे शरीर में उपलब्‍ध लोगों की ही है। और उन्‍होंने बहुत पहले खोजी थी, जिनका हमें कोई ख्‍याल नहीं है।

अब जैसे की हम हजारों बीमारियों का इलाज कर रहे है। जो बिलकुल अवैज्ञानिक है। चौथे शरीर वाला आदमी कहेगा; ये तो बीमारियां ही नहीं है। इनका तुम इलाज क्‍यों कर रहे हो। लेकिन अब वैज्ञानिक समझ रहे है। अभी एलोपैथी नये प्रयोग कर रही है। अभी अमरीका के कुछ हास्पिटलस (चिकित्सालय) में उन्‍होंने…..दस मरीज है एक ही बीमारी के, तो पाँच मरीज को वे पानी का इंजेक्‍शन दे रहे है, पाँच को दवा दे रहे है।

बड़ी हैरानी की बात है कि दवा लेने वाले भी उसी अनुपात में ठीक होते है। और पानी वाले भी उसी अनुपात से ठीक होते है। इसका अर्थ यह हुआ कि पानी से ठीक होनेवाले रोगियों को वास्‍तव में कोई बिमारी नहीं है। बल्‍कि उन्‍हें शायद बीमार होने का भ्रम था।

अब लुकमान ने जो पौधों की बाबत बताया है आज भी उन सब पौधों को पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में टेस्‍ट करे तो हजार साल में भी वो इतने प्रणाम नहीं दे सकती। उस जमाने कैसे किया होगा ये सब काम लुकमान ने। तब तो इतनी प्रयोगशाला भी नहीं थी। ये सब उन्‍होंने चौथे शरीर से जाना था। आज नहीं कल विज्ञान वहां जा कर कहेगी की लुकमान सही था। क्‍योंकि प्रकृति की तरह विज्ञान भी क्रमिक विकास करता है। और ध्‍यान जंप है। एक शरीर से दूसरे शरीर मैं

ओशो

जिन खोजा तीन पाइयां

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