" मेरा पूरा प्रयास एक नयी शुरुआत करने का है। इस से विश्व- भर में मेरी आलोचना निश्चित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता "

"ओशो ने अपने देश व पूरे विश्व को वह अंतर्दॄष्टि दी है जिस पर सबको गर्व होना चाहिए।"....... भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, श्री चंद्रशेखर

"ओशो जैसे जागृत पुरुष समय से पहले आ जाते हैं। यह शुभ है कि युवा वर्ग में उनका साहित्य अधिक लोकप्रिय हो रहा है।" ...... के.आर. नारायणन, भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति,

"ओशो एक जागृत पुरुष हैं जो विकासशील चेतना के मुश्किल दौर में उबरने के लिये मानवता कि हर संभव सहायता कर रहे हैं।"...... दलाई लामा

"वे इस सदी के अत्यंत अनूठे और प्रबुद्ध आध्यात्मिकतावादी पुरुष हैं। उनकी व्याख्याएं बौद्ध-धर्म के सत्य का सार-सूत्र हैं।" ....... काज़ूयोशी कीनो, जापान में बौद्ध धर्म के आचार्य

"आज से कुछ ही वर्षों के भीतर ओशो का संदेश विश्वभर में सुनाई देगा। वे भारत में जन्में सर्वाधिक मौलिक विचारक हैं" ..... खुशवंत सिंह, लेखक और इतिहासकार

Archive for जून 2010


स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षा दी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदा हुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हें जैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुख मिला है? नहीं, वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए। तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें धन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचा भी नहीं एक भी बार कि हम धन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धन मिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था, वही तुम्हें सिखा दिया। उनकी भी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगे भी क्या? जो हम सीखे होते हैं उसी की शिक्षा दे सकते हैं। उन्होंने अपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंप दीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनी ही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थे बीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंप जाओगे।

कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है।

मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है।

तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा सिखाओगे, प्रतियोगिता सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर डालोगे।

इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए।

अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?'
निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!

तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो।

इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ।
फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।'

क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?

और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो

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इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। और इसे हम समझ पाएं, तो ईशावास्य के पहले और अंतिम सूत्र को भी नहीं समझ पाएंगे। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। अगर हम हिसाब लगाने बैठें, तो रंगों की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। कैनवस की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। लेकिन कोई भी श्रेष्ठ कृति, कोई भी श्रेष्ठ चित्र, रंग और कैनवस का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है-समथिंग मोर। एक कवि एक गीत लिखता है। उसके गीत में जो भी शब्द होते हैं, वे सभी शब्द सामान्य होते हैं। उन शब्दों को हम रोज बोलते हैं। शायद ही उस कविता में एकाध ऐसा शब्द मिल जाए जो हम बोलते हों। भी बोलते हों, तो परिचित तो होते हैं। फिर भी कोई कविता शब्दों का सिर्फ जोड़ नहीं है। शब्दों के जोड़ से कुछ ज्यादा है-समथिंग मोर। एक व्यक्ति सितार बजाता है। सितार को सुनकर हृदय पर जो परिणाम होते हैं, वे केवल ध्वनि के आघात नहीं हैं। ध्वनि के आघात से कुछ ज्यादा हम तक पहुंच जाता है। इसे ऐसा समझें-एक व्यक्ति आंख बंद करके आपके हाथ को प्रेम से छूता है, स्पर्श वही होता है; वही व्यक्ति क्रोध से भरकर आपके हाथ को छूता है, स्पर्श वही होता है। जहां तक स्पर्श के शारीरिक मूल्यांकन का सवाल है, दोनों स्पर्श में कोई बुनियादी फर्क नहीं होता। फिर भी जब कोई प्रेम से भरकर हृदय को छूता है, तो उसी छूने में से कुछ निकलता है जो बहुत भिन्न है। और जब कोई क्रोध से छूता है, तो कुछ निकलता है जो बिलकुल और है। और कोई अगर बिलकुल निष्पक्षता से, तटस्थता से छूता है, तो कुछ भी नहीं निकलता है। छूना एक सा है, स्पर्श एक सा है। अगर हम भौतिकशास्त्री से पूछने जाएंगे, तो वह कहेगा कि हाथ पर एक आदमी ने हाथ को छुआ, कितना दबाव पड़ा, दबाव नापा जा सकता है। हाथ पर कितना विद्युत का आघात पड़ा, वह भी नापा जा सकता है। एक हाथ से दूसरे हाथ में कितनी ऊष्मा, कितनी गर्मी गई, वह भी नापी जा सकती है। लेकिन वह ऊष्मा, वह हाथ का दबाव, किसी भी रास्ते से बता सकेगा कि जिस आदमी ने छुआ उसने क्रोध से छुआ था कि प्रेम से छुआ था। फिर भी स्पर्श के भेद हम अनुभव करते हैं। निश्चित ही स्पर्श, केवल हाथ की गर्मी, हाथ का दबाव, विद्युत के प्रभाव का जोड़ नहीं है, कुछ ज्यादा है। जीवन कुछ श्रेष्ठतर गणित पर निर्भर है। यहां जिन चीजों को हमने जोड़ा था, उनसे नई चीज पैदा हो जाती है, उनसे श्रेष्ठतर का जन्म हो जाता है, उनसे महत्वपूर्ण पैदा हो जाता है। क्षुद्रतम से भी महत्वपूर्ण पैदा हो जाता है। जिंदगी साधारण गणित नहीं है। बहुत श्रेष्ठतर, गहरा, सूक्ष्म गणित है। ऐसा गणित है जहां आंकड़े बेकार हो जाते हैं। जहां गणित के जोड़ और घटाने के नियम बेकार हो जाते हैं। और जिस आदमी को गणित के पार, जिंदगी के रहस्य का पता नहीं है, उस आदमी को जिंदगी का कोई भी पता नहीं है

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