मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि हमारी सारी तकलीफ एक है, हमारा सारा तनाव, हमारी सारी एंग्जाइटी, हमारी सारी चिंता एक है; और वह चिंता इतनी है कि प्रेम कैसे मिले! और जब प्रेम नहीं मिलता तो हम सब्स्टीट्यूट खोजते हैं प्रेम के, हम फिर प्रेम के ही परिपूरक खोजते रहते हैं। लेकिन हम जिंदगीभर प्रेम खोज रहे हैं, मांग रहे हैं।
क्यों मांग रहे हैं? आशा से कि मिल जाएगा, तो बढ़ जाएगा। इसका मतलब फिर यह हुआ कि हमें फिर प्रेम का पता नहीं था। क्योंकि जो चीज मिलने से बढ़ जाए, वह प्रेम नहीं है। कितना ही प्रेम मिल जाए, उतना ही रहेगा जितना था।
जिस आदमी को प्रेम के इस सूत्र का पता चल जाए, उसे दोहरी बातों का पता चल जाता है। उसे दोहरी बातों का पता चल जाता है। एक, कितना ही मैं दूं, घटेगा नहीं। कितना ही मुझे मिले, बढ़ेगा नहीं। कितना ही! पूरा सागर मेरे ऊपर टूट जाए प्रेम का, तो भी रत्तीभर बढ़ती नहीं होगी। और पूरा सागर मैं लुटा दूं, तो भी रत्तीभर कमी नहीं होगी।
पूर्ण से पूर्ण निकल आता है, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। परमात्मा से यह पूरा संसार निकल आता है। छोटा नहीं-अनंत, असीम। छोर नहीं, ओर नहीं, आदि नहीं, अंत नहीं-इतना विराट सब निकल आता है। फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रह जाता है पीछे। और कल यह सब कुछ उस परम अस्तित्व में वापस गिर जाएगा, वापस लीन हो जाएगा, तो भी वह पूर्ण ही होगा। नहीं कोई घटती होगी, नहीं कोई बढ़ती होगी
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| रविवार, जुलाई 18, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
बहुत सुंदर….आपका लेखन सदैव गतिमान रहे ...........मेरी हार्दिक शुभकामनाएं...
dhai aakher prem ka padhe so pandit hoy