शिक्षा तो चित्त को बूढ़ा करती है। यह चित्त को जगाती नहीं, भरती है; और भरने से चित्त बूढ़ा होता है। विचार भरने से चित्त थकता, बोझिल होता और बूढ़ा होता है! विचार देना, स्मृति को भरना है। वह विचार या विवेक का जागरण नहीं है। स्मृति विवेक नहीं है। स्मृति तो यांत्रिक है। विवेक है चैतन्य। विचार नहीं देना है, विचार को जगाना है। विचार जहां जाग"त है, वहां चित्त सदा युवा है। और जहां चित्त युवा है, वहां जीवन का सतत संघर्ष है, वहां चेतन के द्वार खुले हैं और वहां सुबह की ताजी हवाएं भी आती हैं, और नये उगते सूरज का प्रकाश भी आता है। व्यक्ति जब दूसरों के विचारों और शब्दों की कैद में हो जाता है, तो सत्य के आकाश में उसकी स्वयं की उड़ने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है। लेकिन शिक्षा क्या करती है? क्या वह विचार करना सिखाती है, या कि मात्र मृत और उधार विचार देकर ही तृप्त हो जाती है? विचार से जीवंत और शक्ति कौन सी है।
लेकिन मात्र दूसरों के विचारों को सीख लेने से जड़, और मृत भी कोई दूसरी जड़ता नहीं है। विचार संग"ह जड़ता लाता है। विचार संग"ह से विचार और विवेक का जन्म नहीं होता है।
विचार और विवेक के आविर्भाव के लिए यांत्रिक स्मृति पर अत्यधिक बल घातक है। उसके लिए तो विचार और विवेक के समुचित अवसर होने आवश्यक हैं। उसके लिए तो श्रद्धा की जगह संदेह सिखाना अनिवार्य है।
श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं। संदेह मुक्त करता है।
लेकिन संदेह से मेरा अर्थ अविश्वास नहीं है, क्योंकि अविश्वास तो विश्वास का ही नकारात्मक रूप है-न विश्वास, न अविश्वास वरन संदेह-विश्वास और अविश्वास दोनों ही संदेह की मृत्यु हैं। और जहां संदेह की मुक्तिदायी तीव"ता नहीं है वहां न सत्य की खोज है, न प्राप्ति है।
संदेह की तीव"ता खोज बनती है। संदेह है प्यास, संदेह है अभीप्सा। संदेह की अग्नि में ही प्राणों का मंथन होता है और विचार का जन्म होता है। संदेह की पीड़ा विचार के जन्म की प्रसव पीड़ा है। और जो उस पीड़ा से पलायन करता है, वह सदा के लिए विचार के जागरण से वंचित रह जाता है।
क्या हममें संदेह है? क्या हममें जीवन के मूलभूत अर्थों और मूल्यों के प्रति संदेह है? यदि नहीं, तो निश्चय ही हमारी शिक्षा गलत हुई है। सम्यक शिक्षा का सम्यक संदेह के अतिरिक्त और कोई आधार ही नहीं है। संदेह नहीं तो खोज कैसे होगी? संदेह नहीं तो असंतोष कैसे होगा? संदेह नहीं तो प्राण सत्य को जानने और पाने को आकुल कैसे होंगे? इसलिए तो हम सब अत्यंत छिछली तृप्ति के डबरे बन गए हैं, और हमारी आत्माएं सतत सागर की खोज में बहने वाली सरिताएं नहीं हैं
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| शुक्रवार, जुलाई 16, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
क्या बात है ? बहुत अच्छा. हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश