शिक्षा की स्थिति देख कर हृदय में बहुत पीड़ा होती है। शिक्षा के नाम पर जिन परतंत्रताओं का पोषण किया जाता है उनसे एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है। मनुष्य-जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं। शिक्षा ने प्रकृति से तो मनुष्य को तोड़ दिया है लेकिन संस्कृति उससे पैदा नहीं हो सकी है, उलटे पैदा हुई है-विकृति। इस विकृति को ही प्रत्येक पीढ़ी नई पीढ़ियों पर थोपे चली जाती है। और फिर जब विकृति ही संस्कृति समझी जाती हो तो स्वभावतः थोपने का कार्य पुण्य की आभा भी ले लेता हो तो आश्चर्य नहीं है। और जब पाप पुण्य के वेश में प्रकट होता है, तो अत्यंत घातक हो ही जाता है। इसलिए ही तो शोषण सेवा की आड़ में खड़ा होता है, और हिंसा अहिंसा के वस्त्र ओढ़ती है, और विकृतियां संस्कृति के मुखौटे पहन लेती हैं। अधर्म का धर्म के मंदिरों में आवास अकारण नहीं है। अधर्म सीधा और नग्न तो कभी उपस्थित ही नहीं होता है। इसलिए यह सदा ही उचित है कि मात्र वस्त्रों में विश्वास न किया जाए। वस्त्रों को उघाड़ कर देख लेना अत्यंत ही आवश्यक है। मैं भी शिक्षा के वस्त्रों को उघाड़ कर ही देखना चाहूंगा। इसमें आप बुरा तो न मानेंगे? विवशता है, इसलिए ऐसा करना आवश्यक है। शिक्षा की वास्तविक आत्मा को देखने के लिए उसके तथाकथित वस्त्रों को हटाना ही होगा। क्योंकि अत्यधिक सुंदर वस्त्रों में जरूर ही कोई अस्वस्थ और कुरूप आत्मा वास कर रही है; अन्यथा मनुष्य का जीवन इतनी घृणा, हिंसा और अधर्म का जीवन नहीं हो सकता था। जीवन के वृक्ष पर कड़वे और विषाक्त फल देख कर क्या गलत बीजों के बोए जाने का स्मरण नहीं आता है? बीज गलत नहीं तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं? वृक्ष का विषाक्त फलों से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है? मनुष्य गलत है तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नहीं है। यह हो सकता है कि आप इस भांति न सोचते रहे हों और मेरी बात का आपकी विचारणा से कोई मेल न हो। लेकिन मैं माने जाने का नहीं, मात्र सुने जाने का निवेदन करता हूं। उतना ही पर्याप्त भी है। सत्य को शांति से सुन लेना ही काफी है। असत्य ही माने जाने का आग"ह करता है। सत्य तो मात्र सुन लिए जाने पर ही परिणाम ले आता है। सत्य का सम्यक श्रवण ही स्वीकृति है। लेकिन यह जड़ता किसने पैदा की है? निश्चित ही शिक्षा ने और शिक्षक ने। शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है। यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है। शोषण के अनेक कारण हैं-धर्म हैं, धार्मिक गुरु हैं, राजतंत्र हैं, समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं, धनपति हैं, सत्ताधिकारी हैं। सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो, क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है। विचार मूलतः विद्रोह है। क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखें हैं। उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता। उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है। उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं, वे विश्वास के पक्ष में हैं। क्योंकि विश्वास अंधा है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| गुरुवार, जुलाई 08, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
सत्य विश्लेषण! जय ओशो!
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश