मैंने सुना है कि एक गांव के बाहर एक फकीर रहता था। एक रात उसने देखा की एक काली छाया गांव में प्रवेश कर रही हे। उसने पूछा कि तुम कौन हो। उसने कहां, मैं मौत हूँ और शहर में महामारी फैलने वाली है। इसी लिये में जा रही हूं। एक हजार आदमी मरने है, बहुत काम है। मैं रूक न सकूँगी। महीने भर में शहर में दस हजार आदमी मर गये। फकीर ने सोचा हद हो गई झूठ की, मौत खुद ही झूठ बोल रही है। हम तो सोचते थे कि आदमी ही बेईमान है, ये तो देखो मौत भी बेईमान हो गई। कहां एक हजार ओर मार दिये दस हजार। मौत जब एक महीने बाद आई तो फकीर ने पूछा की तुम तो कहती थी एक हजार आदमी ही मारने है। दस हजार आदमी मर चुके और अभी मरने ही जा रहे है।
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| रविवार, सितंबर 05, 2010 |
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टिप्पणियाँ
सुना है मैंने एक घर में दो वर्ष से एक आदमी लक़वे से परेशान है—उठ नहीं सकता है, न हिल ही सकता है। सवाल ही नहीं है उठने का—सूख गया है। एक रात—आधी रात, घर में आग लग गयी हे। सारे लोग घर के बाहर पहुंच गये पर प्रमुख तो घर के भीतर ही रह गया। पर उन्होंने क्या देखा की प्रमुख तो भागे चले आ रहे है। यह तो बिलकुल चमत्कार हो गया। आग की बात तो भूल ही गये। देखा ये तो गजब हो गया। लकवा जिसको दो साल से लगा हुआ था। वह भागा चला आ रहा है। अरे आप चल कैसे सकते है। और वह वहीं वापस गिर गया। मैं चल ही नहीं सकता।
उस मौत ने कहां, मैंने तो एक हजार ही मारे है। नौ हजार तो घबराकर मर गये हे। मैं तो आज जा रही हूं, और पीछे से जो लोग मरेंगे उन से मेरा कोई संबंध नहीं होगा और देखना अभी भी शायद इतने ही मेरे जाने के बाद मर जाए। वह खुद मर रहे है। यह आत्महत्या है। जो आदमी भरोसा करके मर जाता है। यदि मर गया वह भी आत्महत्या हो गयी। ऐसी आत्माहत्याओं पर मंत्र काम कर सकते है ताबीज काम कर सकते है, राख काम कर सकती है। उसमें संत-वंत को कोई लेना-देना नहीं है। अब हमें पता चल गया है कि उसकी मानसिक तरकीबें है, तो ऐसे अंधे है।
अभी लक़वे के मरीजों पर सैकड़ों प्रयोग किये गये। लक़वे के मरीज को हिप्नोटाइज करके, बेहोश करके चलवाया जा सकता है। और वह चलता है, तो उसका शरीर तो कोई गड़बड़ नहीं करता। बेहोशी में चलता है। और होश में नहीं चल पाता। चलता है, चाहे बेहोशी में ही क्यों न चलता हो एक बात का तो सबूत है कि उसके अंगों में कोई खराबी नहीं है। क्योंकि बेहोशी में अंग कैसे काम कर रहे है। अगर खराब हो। लेकिन होश में आकर वह गिर जाता है। तो इसका मतलब साफ है।
बहुत से बहरे है, जो झूठे बहरे है। इसका मतलब यह नहीं है कि उनको पता नहीं है क्योंकि अचेतन मन ने उनको बहरा बना दिया है। बेहोशी में सुनते है। होश में बहरे हो जाते है। ये सब बीमारियाँ ठीक हो सकती है। लेकिन इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है। चमत्कार नहीं है, विज्ञान जो भीतर काम कर रहा है। साइकोलाजी, वह भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। आज नहीं कल, पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगा।
आप एक साधु के पास गये। उसने आपको देखकर कह दिया, आपका फलां नाम है? आप फलां गांव से आ रहे है। बस आप चमत्कृत हो गये। हद हो गयी। कैसे पता चला मेरा गांव, मेरा नाम, मेरा घर? क्योंकि टेलीपैथी अभी अविकसित विज्ञान है। बुनियादी सुत्र प्रगट हो चुके है। अभी दूसरे के मन के विचार को पढ़ने कि साइंस धीरे-धीरे विकसित हो रही है। और साफ हुई जा रही है। उसका सबूत है, कुछ लेना देना नहीं है। कोई भी पढ़ सकेगा, कल जब साइंस हो जायेगी, कोई भी पढ़ सकेगा। अभी भी काम हुआ है। और दूसरे के विचार को पढ़ने में बड़ी आसानी हो गयी हे। छोटी सी तरकीब आपको बता दूँ, आप भी पढ़ सकते है। एक दो चार दिन प्रयोग करें। तो आपको पता चल जायेगा, और आप पढ सकते है। लेकिन जब आप खेल देखेंगे तो आप समझेंगे की भारी चमत्कार हो रहा है।
एक छोटे बच्चे को लेकर बैठ जायें। रात अँधेरा कर लें। कमरे में। उसको दूर कोने में बैठा लें। आप यहां बैठ जायें और उस बच्चे से कह दे कि हमारी तरफ ध्यान रख। और सुनने की कोशिश कर, हम कुछ ने कुछ कहने की कोशिश कर रहे है। और अपने मन में एक ही शब्द ले लें और उसको जोर से दोहरायें। अंदर ही दोहरायें, गुलाब, गुलाब, को जोर से दोहरायें, गुलाब, गुलाब, गुलाब.......दोहरायें आवाज में नहीं मन में जोर से। आप देखेंगे की तीन दिन में बच्चे ने पकड़ना शुरू कर दिया। वह वहां से कहेगा। क्या आप गुलाब कह रहे है। तब आपको पता चलेगा की बात क्या हो गयी।
जब आप भीतर जोर से गुलाब दोहराते है। तो दूसरे तक उसकी विचार तरंगें पहुंचनी शुरू हो जाती है। बस वह जरा सा रिसेप्टिव होने की कला सीखने की बात है। बच्चे रिसेप्टिव है। फिर इससे उलट भी किया जा सकता है। बच्चे को कहे कि वह एक शब्द मन में दोहरायें और आप उसे तरफ ध्यान रखकर, बैठकर पकड़ने की कोशिश करेंगें। बच्चा तीन दिन में पकड़ा है तो आप छह दिन में पकड़ सकते है। कि वह क्या दोहरा रहा है। और जब एक शब्द पकड़ा जा सकता है। तो फिर कुछ भी पकड़ा जा सकता है।
हर आदमी के अंदर विचार कि तरंगें मौजूद है, वह पकड़ी जा रही है। लेकिन इसका विज्ञान अभी बहुत साफ न होने की वजह से कुछ मदारी इसका उपयोग कर रह है। जिनको यह तरकीब पता है वह कुछ उपयोग कर रहे है। फिर वह आपको दिक्कत में डाल देते है।
शब्द सूचक :
बहुत ही अच्छा आलेख है ! काफ़ी ज्ञान की बातें पढ़ने को मिली, अगर वाकई में ये कला हर मनुष्य को आ जाए तो कोई भी किसी के लिए बुरा सोचने से भी डरेगा !
मौत,आत्महत्या और चमत्कार. टैलीपैथी पर ओशो के सटीक विचार । इस माध्यम से ओशो का संदेश पहुँचाने के लिए साधुवाद !
बहुत ही अच्छा आलेख है .....
aman jeet singh,,
बहुत ही अच्छा लेख लिखा है आपने , इस देश के लोग चमत्कार पर ज्यादा विस्वाश करने लगे है ...
क्या बात है, शानदार लेख, अंधविश्वास को दूर भागने के लिए लोगो का शिक्षित होना बहुत जरुरी है .... और इस की सुरुआत के लिए आज से अच्छा दिन कौन सा होगा ... तो सुरु कीजिये देश में फैले इस अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाना ....
:)
aap ne kabhi hamara blog dekhaa hai....?
जो सिर्फ इस ग्रह पृथ्वी ग्रह पर अतिथि हुए 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच
न चमत्कार कभी पृथ्वी पर हुआ नहीं। न कभी होगा।
न कभी जन्मे - न कभी विदा हुए,
:)
:)
ऐसा तो हमने कई बार महसूस किया है कि जब हम कोई फिल्मी गीत मन में सोचते हैं और उसे गाने ही वाले होते हैं तभी हमारा साथी उसे हमसे पहले ही गाने लगता है ।
बहुत ही बढ़िया आलेख है! बेहतरीन प्रस्तुती!
शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
@ जब आप भीतर जोर से गुलाब दोहराते है। तो दूसरे तक उसकी विचार तरंगें पहुंचनी शुरू हो जाती है। बस वह जरा सा रिसेप्टिव होने की कला सीखने की बात है।
बहुत उत्तम तरीक़े से बात समझाई गई है। इतनी गूढ-गंभीर प्रस्तुति के लिए आभार!
osho ji ki baatein aksar samajhne waali hoti hain, unki har baat mein kuch sandesh jaroor hota hai.... shukriya share karne k liye.....
A Silent Silence : Ek bejurm sazaa..(एक बेजुर्म सज़ा..)
Banned Area News : 11 hrs of meditation may boost brain function
अन्धविश्वास को दूर भगाता आलेख्……………प्रशंसनीय।
ओशो को पढ़ना हमेशा सुखदाई लगता है..
संग्रहणीय प्रस्तुति!
हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
न चमत्कार कभी पृथ्वी पर हुआ नहीं। न कभी होगा .........
ओशो जो भी कहते हैं..... सत्य प्रतीत होता है. पर देखा जाये तो ये दुनिया ही चमत्कारों में जी रही है.
हर चीज़ में चमत्कार है........
दिल्ली में एक व्यक्ति ६०००/- रूप कि प्राइवेट नौकरी कर के मकान का किराया, राशन, कपडे, मोबाइल, आने-जाने का भाडा इत्यादी देने के बाद २०००/- घर भेज रहा है तो आप इसे क्या कहेंगे......... मैं तो चमत्कार ही कहूँगा.
:)
:)
wah!
http://liberalflorence.blogspot.com/
कितनी सार्थक बात कही है ओशो ने इतने सुंदर शब्दों में ...........
यहाँ भी आइये ........
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_06.html
संदर लेख है ...... साथ ही आपने ब्लॉग के लिए अच्छा टेम्पलेट चुना है ,,,,
बहुत उत्तम तरीक़े से बात समझाई गई है। इतनी गूढ-गंभीर प्रस्तुति के लिए आभार!
गुलाब वो बच्चा पकड़ लेता है। अजमाई हुई बात है। सो मेरे लिए हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या।
धन्यवाद आप सभी का जो आपने मुझे पढने का समय निकला .........
main abhi jeevan ke 55wen saaal mein hoon .maine osho ko aaj se tis saal pahle pahli baar padha tha ..sambhog se samadhi kitab ke madhyam se.wo mere ek dost ne lakar diya tha ...woh ise sex ki kitab samajhkar le aaya tha aur mujhe thama gaya kaha ki galat kitab kharid liye aur ek rupaye mein mujhe thama gaya.us ek rupaye ne meri zindagi badal di.aaj aastha,sanskar par jitne bhi pravachankarta aate hain we sabhi osho ki nakal karte hain.osho ne ksbhi serious baate nahin ki .chhoti chhoti kathaon vyangya chutkulon ke jariye jivan ka rahasya samjhaya.hindu mythology ko naye tarike se samjhaya.main manta hoon ki aaj tak bharat mein tin hi maulik adhyatmik chintak huye hain.1.swami vivekanand2.osho3.srisri ravishankar.osho par itni samagri dekhkar man prasanna ho gaya.sadhuwad
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