प्रेम अपने ढ़ंग से हिंसा करता है। प्रेमपूर्ण ढंग से हिंसा करता है। पत्नी, पति को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताती है। पति, पत्नी को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। बाप, बेटे को प्रेमपूर्ण ढ़ंग से सताता है। और जब, सताना प्रेमपूर्ण हो तो बड़ा सुरक्षित हो जाता है। फिर सताने में बड़ी सुविधा मिल जाती है, क्योंकि हिंसा ने अहिंसा का चेहरा ओढ़ लिया है। शिक्षक विद्यार्थी को सताता है और कहता है, तुम्हारे हित के लिए ही सता रहा हूं। और जब किसी के हित के लिए सताते है, तब सताना बड़ा आसान है। वह गौरवान्वित, पुण्यकारी हो जाता है। इसलिए ध्यान रखना, दूसरे को सताने में हमारे चेहरे सदा साफ होते हैं। जो बड़ी-से-बड़ी हिंसा चलती है वह दूसरे साथ नहीं, वह अपनों के साथ चलती है।
सच तो यह है कि किसी को भी शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना अनिवार्य शर्त है। किसी को मित्र बनाने के लिए शत्रु बनाना अनिवार्य शर्त नहीं है। शर्त ही नहीं है। असल में शत्रु बनाने के लिए पहले मित्र बनाना जरूरी है। मित्र बनाये बिना शत्रु नहीं बनाया जा सकता। हां, मित्र बनाया जा सकता है बिना शत्रु बनाये। उसके लिए कोई शर्त नहीं है शत्रुता की। मित्रता से पहले चलती है।
अपनों के साथ जो हिंसा है, वह अहिंसा का गहरे से गहरा चेहरा है। इसलिए जिस व्यक्ति को हिंसा के प्रति जागना हो, उसे पहले अपनों के प्रति जो हिंसा है, उसके प्रति जागना होगा। लेकिन मैंने कहा कि किसी-किसी क्षण में दूसरा अपना मालूम पड़ता है। बहुत निकट हो गये हैं हम। यह निकट होना, दूर होना, बहुत तरल है। पूरे वक्त बदलता रहता है।
इसलिए हम चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होते किसी के साथ। प्रेम सिर्फ क्षण होते हैं। प्रेम के घंटे नहीं होते है। प्रेम के दिन नहीं होते। प्रेम के वर्ष नहीं होते। मोमेंट ओनली। लेकिन क्षण जब हम क्षणो से स्थायित्व का धोखा देते हैं तो हिंसा शुरु हो जाती है। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यह क्षण की बात है। अगले क्षण भी करूंगा, जरुरी नहीं। कर सकूंगा, जरूरी नहीं। लेकिन अगर मैंने वायदा किया कि अगले क्षण भी प्रेम जारी रखूंगा, तो अगले क्षण जब हम दूर हट गये होंगे और हिंसा बीच में आ गई होगी तब हिंसा प्रेम का शक्ल लेगी। इसलिए दुनिया में जितनी अपना बनानेवाली संस्थाएं है, सब हिंसक हैं। परिवार से ज्यादा हिंसा और किसी संस्था ने नहीं की है, लेकिन उसकी हिंसा बड़ी सूक्ष्म है।
इसलिए अगर संन्यासी को परिवार छोड़ देना पड़ा, तो उसका कारण था। उसका कारण था-सूक्ष्मता हिंसा के बाहर हो जाना। और कोई कारण नहीं था, और कोई भी कारण नहीं था। सिर्फ़ एक ही कारण था कि हिंसा का एक सूक्ष्मतम जाल है जो अपना कहनेवाला कर रहे हैं। उनसे लड़ना भी मुश्किल है, क्योंकि वे हमारे हित में ही कर रहे हैं। परिवार का ही फैला हुआ बड़ा रूप समाज है इसलिए समाज ने जितनी हिंसा की है, उसका हिसाब लगाना कठिन है !
सच तो यह है कि समाज ने करीब-करीब व्यक्ति को मार डाला है ! इसलिए ध्यान रहे जब समाज आप समाज के सदस्य की हैसियत से किसी के साथ व्यवहार करने लगते हैं तब आप हिंसक होते हैं। आप जैन की तरह हैं तो आप हिंसक हैं मुसलमान की तरह व्यवहार करते हैं तो आप हिंसक हैं। क्योंकि अब आप व्यक्ति की तरह व्यवहार नहीं कर रहे, अब आप समाज की तरह व्यवहार कर रहे हैं। और अभी व्यक्ति ही अहिंसक नहीं हो तो समाज के अहिंसक होने की संभावना तो बहुत दूर है। समाज तो अहिंसक हो ही नहीं सकता इसलिए दुनिया में जो बड़ी हिंसाएं हैं, वह व्यक्तियों ने नहीं की हैं, वह समाज ने की हैं।
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| मंगलवार, अगस्त 10, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
ओशो की आवाज जब बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल की तरह घिरती हुई बूँद-बूँद बरसती है, और सूरज की एक किरण होकर कहीं अन्तर्मन में उतरती है तो कह सकती हूँ, वहां चेतना का सोया हुआ बीज पनपने लगता है। फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका कोई भी नाम हो सकता है।
nice .............
achha laga post .....
हिंसा सदैव से ही मनुष्य की शत्रु रही है ,
Nice Post................
Osho - who is Osho , can you tell me about Osho.
nice post of osho.......................................................
बहुत खूब .....क्या कहने
बहुत खूब .....क्या कहने
बहुत खूब .....क्या कहने
बहुत खूब .....क्या कहने
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश