" मेरा पूरा प्रयास एक नयी शुरुआत करने का है। इस से विश्व- भर में मेरी आलोचना निश्चित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता "

"ओशो ने अपने देश व पूरे विश्व को वह अंतर्दॄष्टि दी है जिस पर सबको गर्व होना चाहिए।"....... भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, श्री चंद्रशेखर

"ओशो जैसे जागृत पुरुष समय से पहले आ जाते हैं। यह शुभ है कि युवा वर्ग में उनका साहित्य अधिक लोकप्रिय हो रहा है।" ...... के.आर. नारायणन, भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति,

"ओशो एक जागृत पुरुष हैं जो विकासशील चेतना के मुश्किल दौर में उबरने के लिये मानवता कि हर संभव सहायता कर रहे हैं।"...... दलाई लामा

"वे इस सदी के अत्यंत अनूठे और प्रबुद्ध आध्यात्मिकतावादी पुरुष हैं। उनकी व्याख्याएं बौद्ध-धर्म के सत्य का सार-सूत्र हैं।" ....... काज़ूयोशी कीनो, जापान में बौद्ध धर्म के आचार्य

"आज से कुछ ही वर्षों के भीतर ओशो का संदेश विश्वभर में सुनाई देगा। वे भारत में जन्में सर्वाधिक मौलिक विचारक हैं" ..... खुशवंत सिंह, लेखक और इतिहासकार

Archive for जुलाई 2010


शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है। यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है। शोषण के अनेक कारण हैं-धर्म हैं, धार्मिक गुरु हैं, राजतंत्र हैं, समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं, धनपति हैं, सत्ताधिकारी हैं।
सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो, क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है। विचार मूलतः विद्रोह है। क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखें हैं। उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता। उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है। उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं, वे विश्वास के पक्ष में हैं। क्योंकि विश्वास अंधा है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है।

मनुष्य का अंधापन उसे सब भांति के शोषण की भूमि बना देता है। इसलिए विश्वास सिखाया जाता है, आस्था सिखाई जाती है, श्रद्धा सिखाई जाती है। धर्मों ने यही किया है। राजनीतिज्ञों ने यही किया है। विचार से सभी भांति के सत्ताधिकारियों को भय है। विचार जाग" होगा तो तो वर्ण हो सकते हैं, वर्ग हो सकते हैं। धन का शोषण भी नहीं हो सकता है। और शोषण को पिछले जन्मों के पाप-पुण्यों के आधार पर भी नहीं समझाया और बचाया जा सकता है।

विचार के साथ आएगी क्रांति-सब तलों पर और सब संबंधों में-राजनीतिज्ञ भी उसमें नहीं बचेंगे और राष्ट्रों की सीमाएं भी नहीं बचेंगी। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली कोई दीवाल नहीं बच सकती है। इससे विचार से भय है, पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को भी, साम्यवादी राजनीतिज्ञों को भी। और इस भय से सुरक्षा के लिए शिक्षा के ढांचे की ईजाद हुई है। यह तथाकथित शिक्षा सैकड़ों वर्षों से चल रहे एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। धर्म पुरोहित पहले इस पर हावी थे, अब राज्य हावी है।

विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता है। क्योंकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें अनुपस्थित होती है। व्यक्तित्व की मूल आधारशिला क्या है? क्या विचार की स्वतंत्र क्षमता ही नहीं? लेकिन स्वतंत्र विचार की तो जन्म के पूर्व ही हत्या कर दी जाती है। गीता सिखाई जाती है, कुरान और बाइबिल सिखाए जाते हैं, कैपिटल और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो सिखाए जाते हैं-उनके आधार पर, उनके ढांचे में विचार करना भी सिखाया जाता है! ऐसे विचार से ज्यादा मिथ्या और क्या हो सकता है? ऐसे अंधी पुनरुक्ति सिखाई जाती है और उसे ही विचार करना कहा जाता है

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मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि हमारी सारी तकलीफ एक है, हमारा सारा तनाव, हमारी सारी एंग्जाइटी, हमारी सारी चिंता एक है; और वह चिंता इतनी है कि प्रेम कैसे मिले! और जब प्रेम नहीं मिलता तो हम सब्स्टीट्यूट खोजते हैं प्रेम के, हम फिर प्रेम के ही परिपूरक खोजते रहते हैं। लेकिन हम जिंदगीभर प्रेम खोज रहे हैं, मांग रहे हैं।

क्यों मांग रहे हैं? आशा से कि मिल जाएगा, तो बढ़ जाएगा। इसका मतलब फिर यह हुआ कि हमें फिर प्रेम का पता नहीं था। क्योंकि जो चीज मिलने से बढ़ जाए, वह प्रेम नहीं है। कितना ही प्रेम मिल जाए, उतना ही रहेगा जितना था।

जिस आदमी को प्रेम के इस सूत्र का पता चल जाए, उसे दोहरी बातों का पता चल जाता है। उसे दोहरी बातों का पता चल जाता है। एक, कितना ही मैं दूं, घटेगा नहीं। कितना ही मुझे मिले, बढ़ेगा नहीं। कितना ही! पूरा सागर मेरे ऊपर टूट जाए प्रेम का, तो भी रत्तीभर बढ़ती नहीं होगी। और पूरा सागर मैं लुटा दूं, तो भी रत्तीभर कमी नहीं होगी।

पूर्ण से पूर्ण निकल आता है, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। परमात्मा से यह पूरा संसार निकल आता है। छोटा नहीं-अनंत, असीम। छोर नहीं, ओर नहीं, आदि नहीं, अंत नहीं-इतना विराट सब निकल आता है। फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रह जाता है पीछे। और कल यह सब कुछ उस परम अस्तित्व में वापस गिर जाएगा, वापस लीन हो जाएगा, तो भी वह पूर्ण ही होगा। नहीं कोई घटती होगी, नहीं कोई बढ़ती होगी

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शिक्षा तो चित्त को बूढ़ा करती है। यह चित्त को जगाती नहीं, भरती है; और भरने से चित्त बूढ़ा होता है। विचार भरने से चित्त थकता, बोझिल होता और बूढ़ा होता है! विचार देना, स्मृति को भरना है। वह विचार या विवेक का जागरण नहीं है। स्मृति विवेक नहीं है। स्मृति तो यांत्रिक है। विवेक है चैतन्य। विचार नहीं देना है, विचार को जगाना है। विचार जहां जाग" है, वहां चित्त सदा युवा है। और जहां चित्त युवा है, वहां जीवन का सतत संघर्ष है, वहां चेतन के द्वार खुले हैं और वहां सुबह की ताजी हवाएं भी आती हैं, और नये उगते सूरज का प्रकाश भी आता है। व्यक्ति जब दूसरों के विचारों और शब्दों की कैद में हो जाता है, तो सत्य के आकाश में उसकी स्वयं की उड़ने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है। लेकिन शिक्षा क्या करती है? क्या वह विचार करना सिखाती है, या कि मात्र मृत और उधार विचार देकर ही तृप्त हो जाती है? विचार से जीवंत और शक्ति कौन सी है।
लेकिन मात्र दूसरों के विचारों को सीख लेने से जड़, और मृत भी कोई दूसरी जड़ता नहीं है। विचार संग" जड़ता लाता है। विचार संग" से विचार और विवेक का जन्म नहीं होता है।

विचार और विवेक के आविर्भाव के लिए यांत्रिक स्मृति पर अत्यधिक बल घातक है। उसके लिए तो विचार और विवेक के समुचित अवसर होने आवश्यक हैं। उसके लिए तो श्रद्धा की जगह संदेह सिखाना अनिवार्य है।
श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं। संदेह मुक्त करता है।
लेकिन संदेह से मेरा अर्थ अविश्वास नहीं है, क्योंकि अविश्वास तो विश्वास का ही नकारात्मक रूप है- विश्वास, अविश्वास वरन संदेह-विश्वास और अविश्वास दोनों ही संदेह की मृत्यु हैं। और जहां संदेह की मुक्तिदायी तीव"ता नहीं है वहां सत्य की खोज है, प्राप्ति है।
संदेह की तीव"ता खोज बनती है। संदेह है प्यास, संदेह है अभीप्सा। संदेह की अग्नि में ही प्राणों का मंथन होता है और विचार का जन्म होता है। संदेह की पीड़ा विचार के जन्म की प्रसव पीड़ा है। और जो उस पीड़ा से पलायन करता है, वह सदा के लिए विचार के जागरण से वंचित रह जाता है।

क्या हममें संदेह है? क्या हममें जीवन के मूलभूत अर्थों और मूल्यों के प्रति संदेह है? यदि नहीं, तो निश्चय ही हमारी शिक्षा गलत हुई है। सम्यक शिक्षा का सम्यक संदेह के अतिरिक्त और कोई आधार ही नहीं है। संदेह नहीं तो खोज कैसे होगी? संदेह नहीं तो असंतोष कैसे होगा? संदेह नहीं तो प्राण सत्य को जानने और पाने को आकुल कैसे होंगे? इसलिए तो हम सब अत्यंत छिछली तृप्ति के डबरे बन गए हैं, और हमारी आत्माएं सतत सागर की खोज में बहने वाली सरिताएं नहीं हैं

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चूंकि मैं अपनी स्वतंत्रता चाहता हूं, अपनी प्रेयसी को हर संभव स्वतंत्रता देता हूं। लेकिन मैं पाता हूं कि पहले उसका ध्यान रखने का नतीजा यह होता है कि अंततः मैं स्वयं को ही चोट पहुंचाता हूं।'

अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने का तुम्हारा विचार ही गलत है। अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने वाले तुम कौन होते हो? तुम प्रेम कर सकते हो, और तुम्हारे प्रेम में स्वतंत्रता निहित है। यह ऐसी चीज नहीं है जो किसी को दी जा सके। यदि इसे दिया जाता है तो वही समस्याएं आएंगी जिसका तुम सामना करते हो।

सबसे पहले तुम कुछ गलत करते हो। वास्तव में तुम स्वतंत्रता देना नहीं चाहते हो; तुम चाहोगे कि कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जिसमें तुम्हें स्वतंत्रता देनी पड़े। लेकिन तुमने कई बार मुझे यह कहते हुए सुना होगा कि प्रेम स्वतंत्रता देता है, इसलिए बिना सचेत हुए स्वतंत्रता देने के लिए स्वयं पर दबाव डालते हो; क्योंकि अन्यथा तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता।

तुम एक कठिन समस्या में घिरे हो: यदि तुम स्वतंत्रता नहीं देते हो तो तुम अपने प्रेम पर संदेह करने लगते हो; यदि तुम स्वतंत्रता देते हो, जो कि तुम दे नहीं सकते...अहंकार बहुत ही ईर्ष्यालु होता है। इससे हजारों प्रश्न खड़े होंगे। "क्या तुम अपनी प्रेमिका के लिए काफी नहीं हो कि वह किसी और का साथ पाने के लिए तुमसे स्वतंत्रता चाहती है? इससे चोट पहुंचती है और तुम सोचने लगते हो कि तुम अपने को किसी से कम महत्व देते हो।'

उसे स्वतंत्रता देकर तुमने किसी अन्य को पहले रखा और स्वयं को बाद में। यह अहम्के विरुद्ध है और इससे कोई लाभ भी नहीं मिलने वाला है क्योंकि तुमने जो स्वतंत्रता दी है उसके लिए तुम बदला लोगे। तुम चाहोगे कि ऐसी ही स्वतंत्रता तुम्हें मिले, चाहे तुम्हें उसकी आवश्यकता है या नहीं, बात यह नहीं है-ऐसा केवल यह सिद्ध करने के लिए किया जाता है कि तुम ठगे तो नहीं जा रहे हो।

दूसरी बात, यदि तुम्हारी प्रेमिका किसी अन्य के साथ रही है तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ रहने पर अजीब सा महसूस करोगे। यह तुम्हारे और उसके बीच बाधा बनकर खड़ा हो जाएगा। उसने किसी और को चुन लिया है और तुम्हारा त्याग कर दिया है; उसने तुम्हारा अपमान किया है।

और तुमने उसे इतना कुछ दिया है, तुम इतने उदार रहे हो, तुमने उसे स्वतंत्रता दी है। चूंकि तुम आहत महसूस कर रहे हो इसलिए तुम किसी किसी रूप में उसे चोट पहुंचाओगे।

लेकिन यह सब कुछ गलतफहमी के कारण पैदा होता है। मैंने यह नहीं कहा है कि तुम प्रेम करते हो तो तुम्हें स्वतंत्रता देनी होगी। नहीं, मैंने कहा है कि प्रेम स्वतंत्रता है। यह देने का प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हें यह देना पड़ता है तो इसे देना बेहतर है। जो जैसा है उसे वैसे रहने दो। बिना कारण जटिलता क्यों उत्पन्न की जाए? पहले से ही बहुत समस्याएं हैं।

यदि तुम्हारे प्रेम में वह स्तर गया है कि स्वतंत्रता उसका अंग बन गया है, तब तुम्हारी प्रेमिका को अनुमति लेने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। वास्तव में, यदि मैं तुम्हारी जगह होता और मेरी प्रेमिका यदि अनुमति मांगती तो मुझे चोट पहुंचती। इसका अर्थ यह कि उसे मेरे प्रेम पर भरोसा नहीं। मेरा प्रेम स्वतंत्रता है। मैंने उससे प्रेम किया है इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर देना चाहिए ताकि वह किसी के साथ हंस सके, किसी के साथ नृत्य कर सके, किसी से प्रेम कर सके-क्योंकि हम कौन होते हैं?

यही मूल प्रश्न है जिसे सभी को करना चाहिए: हम कौन हैं? हम सभी अजनबी हैं, और इस आधार पर क्या हम इतने दबंग हो सकते हैं कि हम कह सकते हैं, "मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूंगा', अथवा "मैं तुम्हें स्वतंत्रता नहीं दूंगा', "यदि तुम मुझसे प्रेम करती हो तो किसी अन्य से प्रेम नहीं कर सकती?' ये सभी मूर्खतापूर्ण मान्यताएं हैं लेकिन ये सभी मानव पर शुरू से हावी रहे हैं। और हम अभी भी असभ्य हैं; हम अभी भी नहीं जानते कि प्रेम क्या होता है।

यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञ होता हूं कि उसने मुझे प्रेम करने दिया, उसने मेरे प्रेम को अस्वीकार नहीं किया। यह पर्याप्त है। मैं उसके लिए एक कैदखाना नहीं बन जाता। उसने मुझसे प्रेम किया और इसके बदले मैं उसके चारों ओर एक कैदखाना बना रहा हूं? मैंने उससे प्रेम किया, और इसके बदले वह मेरे चारों ओर एक कैदखाना बना रही है? हम एक दूसरे को अच्छा पुरस्कार दे रहें हैं!

यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उसका कृतज्ञ होता हूं और उसकी स्वतंत्रता बनी रहती है। मैंने उसे स्वतंत्रता दी नहीं है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और मेरा प्रेम उससे उसका यह अधिकार नहीं छीन सकता। कैसे प्रेम किसी व्यक्ति से उसकी स्वतंत्रता छीन सकता है, खासकर उस व्यक्ति से जिससे तुम प्रेम करते हो? तुम यह भी नहीं कह सकते कि "मैं उसे स्वतंत्रता देता हूं।' सबसे पहले तुम कौन होते हो? केवल एक अजनवी। तुम दोनों सड़क पर मिले हो, संयोग से, और वह महान है कि उसने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया। उसके प्रति कृतज्ञ रहो और जिस तरह से जीना चाहती है उसे उस तरह से जीने दो, और तुम जिस तरह से जीना चाहते हो उस तरह से जीवन जीओ। तुम्हारी जीवन-शैली में कोई हस्तक्षेप नहीं करे। इसे ही स्वतंत्रता कहते हैं। तब प्रेम तुम्हें कम तनावपूर्ण, कम चिंताग्रस्त होने, कम क्रुद्ध और अधिक प्रेसन्न होने में सहायक होगा।

दुनिया में ठीक इसका उलटा हो रहा है। प्रेम काफी दुख-दर्द देता है और ऐसे भी लोग हैं जो अंततः निर्णय ले लेते हैं कि किसी से प्रेम करना बेहतर है। वे अपने हृदय के द्वार को बंद कर देते हैं क्योंकि यह केवल नरक रह जाता और कुछ भी नहीं।

लेकिन प्रेम के लिए द्वार बंद करने का अर्थ है वास्तविकता के लिए द्वार बंद करना, अस्तित्व के लिए द्वार बंद करना; इसलिए मैं इसका समर्थन नहीं करूंगा। मैं कहूंगा कि प्रेम के संपूर्ण स्वरूप को बदल दो! तुमने प्रेम को बड़ी विचित्र परिस्थिति में धकेल दिया-इस परिस्थिति को बदलो।

प्रेम को अपनी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनने दो। प्रेम को अपने हृदय और साहस का पोषण बनने दो ताकि तुम्हारा हृदय किसी व्यक्ति के प्रति ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति खुल सके

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