मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गयी। आंख वाले लोग बाहर निकल गये। एक अँधा आदमी राजमहल में था। वह द्वार टटोलकर बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास उसने हाथ फैलाकर खोजबीन की और वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद थे। आग बढ़ती चली गयी और जीवन संकट में पड़ता चला गया। अंतत: वह उस द्वार के निकट पहुंचा, जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार पर उसके सिर पर खुजली आ गयी ! वह खुजलाने लगा और उस समय द्वार से आगे निकल गया और फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा !
अगर आप देख रहे हों उस आदमी को तो मन में क्या होगा ? कैसा अभागा था कि बंद द्वार पर श्रम किया और खुले द्वार पर भूल की-जहाँ से कि बिना श्रम के ही बाहर निकला जा सकता था ?
लेकिन यह किसी राजमहल में ही घटी घटना-मात्र नहीं है। जीवन के महल में भी रोज ऐसी घटना घटती है। पूरे जीवन के महल में अंधकार है, आग है। एक ही द्वार खुला है और सब द्वार बन्द हैं। बंद द्वार के पास हम सब इतना श्रम करते हैं, जिसका कोई अनुमान नहीं ! खुले द्वार के पास छोटी-सी भूल होते ही चूक जाते हैं ! ऐसा जन्म-जन्मांतरों से चल रहा है ! धन और यश द्वार हैं- वे बंद द्वार हैं, वे जीवन के बाहर नहीं ले जाते।
एक ही द्वार है जीवन के आगे लगे भवन में बाहर निकलने का और उस द्वार का नाम ‘ध्यान’ है। वह अकेला खुला द्वार है, जो जीवन की आग से बाहर ले जा सकता है।
लेकिन वह सिर पर खुजली उठ आती है, पैर में कीड़ा काट लेता है और कुछ हो जाता है और आदमी चूक जाता है ! फिर बंद द्वार हैं और अनंत भटकन है।
इस कहानी से अपनी बात मैं इसलिए शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि उस खुले द्वार के पास कोई छोटी-सी चीज को चूक न जायें। और यह भी ध्यान रखें कि ध्यान के अतिरिक्त न कोई खुला द्वार कभी था और न है, न होगा। जो भी जीवन की आग के बाहर हैं, वे उसी द्वार से गये हैं। और जो भी कभी जीवन की आग के बाहर जायेगा, वह उसी द्वार से ही जा सकता है।
शेष सब द्वार दिखायी पड़ते हैं कि द्वार हैं, लेकिन वे बंद हैं। धन भी मालूम पड़ता है कि जीवन की आग के बाहर ले जायेगा, अन्यथा कोई पागल तो नहीं है कि धन को इकट्ठा करता रहे-लगता है कि द्वार है, दिखता भी है कि द्वार है ! द्वार नहीं है। दीवार भी दिखती तो अच्छा था, क्योंकि दीवार से हम सिर फोड़ने की कोशिश नहीं करते। लेकिन बंद द्वार पर तो अधिक लोग श्रम करते हैं कि शायद खुल जाये ! लेकिन धन से द्वार आज तक नहीं खुला है, कितना ही श्रम करें। वह द्वार बाहर ले जाता है और भीतर नहीं ले आता है।
ऐसे ही बड़े द्वार हैं-यश के, कीर्ति के, अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के, वे कोई भी द्वार बाहर ले जाने वाले नहीं हैं। लेकिन जब हम उन बंद द्वारों पर खड़े हैं, उन्हें देखकर, पीछे जो उन द्वारों पर नहीं हैं, उन्हें लगता है कि शायद अब भी निकल जायेंगे ! जिसके पास बहुत धन है, निर्धन को देखकर लगता है। कि शायद धनी अब निकल जायेगा जीवन की पीड़ा से, जीवन के दु:ख से, जीवन की आग से, जीवन के अंधकार से। जो खड़े है बंद द्वार पर, वे ऐसा भाव करते हैं कि जैसे निकलने के करीब पहुंच गये।
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| शनिवार, अगस्त 07, 2010 |
6
टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
nice article of osho
बहुत बढिया,
धन के लिए मनुष्य पूरी जिन्दगी परेशान रहता है , हो तो भी और न हो तो भी
very nice article , is it your or Osho
जिन्दगी में कुछ पाना है तो कुछ खोना ही पड़ता है .... बढ़िया पोस्ट
आप सभी का धन्यवाद