महावीर ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। कृष्ण ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। बुद्ध ने जो कहा है, उसमें बदलने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कभी-कभी पश्चिम के लोग चिंतित और विचार में पड़ जाते हैं कि महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हुए, क्या उनकी बात अभी भी सही है? ठीक है उनका पूछना। क्योंकि पच्चीस सौ साल में अगर दीए से हम सत्य को खोजते हों, तो पच्चीस हजार बार बदलाहट हो जानी चाहिए। रोज नए तथ्य आविष्कृत होंगे और पुराने तथ्य को हमें रूपांतरित करना पड़ेगा।
लेकिन महावीर, बुद्ध या कृष्ण के सत्य रिविलेशन हैं। दीया लेकर खोजे गए नहीं-निर्विचार की कौंध, निर्विचार की बिजली की चमक में देखे गए और जाने गए, उघाड़े गए सत्य हैं। जो सत्य महावीर ने जाना उसमें महावीर एक-एक कदम सत्य को नहीं जान रहे हैं, अन्यथा पूर्ण सत्य कभी भी नहीं जाना जा सकेगा। महावीर पूरे के पूरे सत्य को एक साथ जान रहे हैं।
इस महावाक्य से मैं यह आपको कहना चाहता हूं कि इस छोटे से दो वचनों के महावाक्य में पूरब की प्रज्ञा ने जो भी खोजा है, वह सभी का सब इकट्ठा मौजूद है। वह पूरा का पूरा मौजूद है। इसलिए भारत में हम निष्कर्ष पहले, कनक्लूजन पहले, प्रकि"या बाद में। पहले घोषणा कर देते हैं, सत्य क्या है, फिर वह सत्य कैसे जाना जा सकता है, वह सत्य कैसे जाना गया है, वह सत्य कैसे समझाया जा सकता है, उसके विवेचन में पड़ते हैं। यह घोषणा है। जो घोषणा से ही पूरी बात समझ ले, शेष किताब बेमानी है। पूरे उपनिषद में अब और कोई नई बात नहीं कही जाएगी। लेकिन बहुत-बहुत मार्गों से इसी बात को पुनः-पुनः कहा जाएगा। जिनके पास बिजली कौंधने का कोई उपाय नहीं है, जो कि जिद पकड़कर बैठे हैं कि दीए से ही सत्य को खोजेंगे, शेष उपनिषद उनके लिए है। अब दीए को पकड़कर, बाद की पंक्तियों में एक-एक टुकड़े के सत्य की बात की जाएगी। लेकिन पूरी बात इसी सूत्र पर हो जाती है। इसलिए मैंने कहा कि यह सूत्र अनूठा है। सब इसमें पूरा कह दिया गया है। उसे हम समझ लें, क्या कह दिया गया है!
कहा है कि पूर्ण से पूर्ण पैदा होता है, फिर भी पीछे सदा पूर्ण शेष रह जाता है। और अंत में, पूर्ण में पूर्ण लीन हो जाता है, फिर भी पूर्ण कुछ ज्यादा नहीं हो जाता है; उतना ही होता है, जितना था।
यह बहुत ही गणित-विरोधी वक्तव्य है, बहुत एंटी-मैथमेटिकल है
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| बुधवार, जून 16, 2010 |
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