मैं हमेशा ऐसा अनुभव क्यों करता हूं, जैसे कि मेरा एक हिस्सा दूसरे हिस्से के विरुद्ध लड़ रहा है?
मनुष्य का इतिहास एक अत्यंत दुखद घटना रहा है, और इसके दुखद होने का कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। उसे खोजने के लिए तुम्हें ज्यादा दूर जाना न पड़ेगा, वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है।
मनुष्य के पूरे अतीत ने मनुष्य में एक विभाजन पैदा कर दिया है, हर आदमी के भीतर निरंतर एक शीत युद्ध चल रहा है। यदि तुम्हें बेचैनी का अनुभव होता है, तो उसका कारण व्यक्तिगत नहीं है। तुम्हारी बीमारी सामाजिक है। और जिस चालाकी से भरी तरकीब का उपयोग किया गया है, वह है: तुम्हें दुश्मनों के दो खेमों में बांटना-भौतिकवादी और अध्यात्मवादी, जोरबा और बुद्ध।
वस्तुतः तुम बंटे हुए नहीं हो। वास्तविकता यह है कि तुम अखंड हो-एक स्वर में, एक लय में आबद्ध। लेकिन तुम्हारे मन में यह संस्कार गहरा बैठा है कि तुम एक नहीं हो, अखंड नहीं हो, पूर्ण नहीं हो। तुम्हें अपने शरीर के खिलाफ लड़ना होगा। यदि आध्यात्मिक होना चाहते हो तो तुम्हें अपने शरीर को हर संभव तरीके से जीतना पड़ेगा, उसे हराना पड़ेगा, उसे सताना और नष्ट करना पड़ेगा।
पूरी दुनिया में यह धारणा स्वीकृत रही है। विभिन्न धर्मों में, विभिन्न संस्कृतियों में उसके रंग-रूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किंतु आधारभूत सिद्धांत वही है-मनुष्य को विभाजित करो, उसमें संघर्ष पैदा करो, जिससे एक हिस्सा श्रेष्ठ अनुभव करने लगे, पवित्र बन जाए, पुण्यात्मा बन जाए, और दूसरे हिस्से की पापी की तरह निंदा करना शुरू कर दे।
मगर कठिनाई यह है कि तुम एक हो, तुम्हें खंडित करने का कोई उपाय नहीं है। हर विभाजन तुम में दुख पैदा करने वाला है। विभाजन का अर्थ होगा कि तुम्हारी आत्मा का आधा भाग, दूसरे आधे भाग से लड़ रहा है। और यदि तुम स्वयं के भीतर लड़ रहे हो, तो कैसे विश्राम को उपलब्ध होओगे?
पूरी की पूरी मनुष्यता अब तक स्किजोफ्रेनिक ढंग से, खंडित-मानसिकता में जीती रही है। प्रत्येक व्यक्ति टुकड़ों में, खंडों में तोड़ दिया गया है। तुम्हारे धर्म, तुम्हारे दर्शनशास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत, घाव भरने वाले नहीं, वरन घाव करने के साधन रहे हैं-वे अंतर्युद्ध और संघर्ष के कारण रहे हैं। तुम खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते रहे हो। तुम्हारा दायां हाथ, बाएं हाथ को चोट पहुंचाता है, बायां हाथ, दाएं हाथ को घायल करता है, और अंतत: तुम्हारे दोनों हाथ लहूलुहान हो जाते हैं।
पश्चिम ने चार्वाक को चुना, जोरबा को चुना। विक्षिप्तता से बचने का दूसरा रास्ता न था-एक हिस्से को पूर्णतः नष्ट करना पड़ा । पश्चिम ने मनुष्य के आंतरिक सत्य को, उसकी चेतना को अस्वीकार कर दिया-आदमी केवल शरीर है, कहीं कोई आत्मा नहीं है-खाओ, पीओ, और मौज करो, बस यही एकमात्र धर्म है। यह मन की शांति पाने का एक उपाय था, संघर्ष से बाहर आने का, एक निर्णय और निष्कर्ष पर पहुंचने का-क्योंकि यह स्वीकृत हो गया कि तुम एक हो-केवल पदार्थ, केवल शरीर।
ऊपर-ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है कि पूरब और पश्चिम अलग-अलग चीजें कर रहे हैं, किंतु गहराई से समझो तो वे एक ही चीज कर रहे हैं। सचाई यह है कि वे एक होने का बौद्धिक रूप से प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि "दो' होने का मतलब है निरंतर बेचैनी में, सतत संघर्ष में होना; इससे बेहतर है कि "दूसरे' का ख्याल ही भूल जाओ।
इसी संदर्भ में तुम्हें यह स्मरण दिलाना महत्वपूर्ण होगा कि आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि पदार्थ का होना एक भ्रम है। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है, वह केवल दिखाई देता है। वे इस निष्पत्ति पर एक बिलकुल भिन्न मार्ग से पहुंचे हैं-पदार्थ का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे पदार्थ में गहरे जाते हैं, वैसे-वैसे उसकी भौतिकता; उसका पदार्थ-पन कम से कम होता जाता है, और परमाणु के बाद एक ऐसा बिंदु आता है जहां कोई पदार्थ नहीं बचता, सिर्फ इलेक्ट्रॉन रह जाते हैं, जो विद्युत कण हैं, वे पदार्थ नहीं, सिर्फ ऊर्जा तरंगें हैं।
पश्चिमी प्रतिभा को केवल पदार्थ के साथ काम करने की छूट थी। पूरब में प्रतिभा के लिए पहली चुनौती थी-अंतर्यात्रा। सिर्फ द्वितीय श्रेणी के लोगों ने, मध्यम कोटि के लोगों ने बाहरी सांसारिक चीजों के लिए श्रम किया। जो वास्तव में बुद्धिमान थे, उन्होंने सदा ध्यान की दिशा में गति की।
धीरे-धीरे दूरी बढ़ती गई। पश्चिम भौतिकवादी हो गया-इसकी पूरी जिम्मेवारी ईसाई चर्च की है, और पूर्वीय मनुष्यता अधिक से अधिक अध्यात्मवादी हो गई। प्रत्येक व्यक्ति में जो विभाजन, जो विखंडन किया गया था; वही विस्तृत पैमाने पर पूरब और पश्चिम का विभाजन बन गया।
एक महान कवि ने लिखा है: "पूरब" पूरब है; और "पश्चिम" पश्चिम है; और दोनों कभी नहीं मिलेंगे। और इस कवि रुडयार्ड किपलिंग की पूरब में अत्यधिक रुचि थी। वह कई वर्षों तक भारत में रहा-वह सरकारी नौकरी में था। पर इस भेद को देख कर-कि संपूर्ण पूर्वीय चेतना भीतर गति करती है, और पश्चिमी चेतना बहिर्मुखी है...वे कैसे मिल सकते हैं?
मेरा पूरा काम रुडयार्ड किपलिंग को गलत सिद्ध करना है। मैं कहना चाहूंगा कि न पश्चिम पश्चिम है; न पूरब पूरब है-वे दोनों पहले से ही मिले हुए हैं। न कोई पूरब है, न कोई पश्चिम है। उनके दृष्टिकोण बहुत भिन्न रहे लेकिन वे समझे जा सकते हैं।
मेरी दृष्टि यह है, मेरा सारा प्रयास यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सेतु निर्मित हो, ताकि तुम एक हो जाओ, पूर्ण हो जाओ। देह से दुश्मनी न करो, वह तुम्हारा घर है। अपनी आत्मा से शत्रुता न साधो, क्योंकि बिना चेतना के हो सकता है तुम्हारा घर खूब सजा-धजा हो, पर वह खाली मकान होगा-बिना मालिक के-सूना। शरीर और आत्मा जब साथ-साथ हों, तो एक सौंदर्य पैदा होता है-एक पूर्ण जीवन! एक भरा-पूरा जीवन!!
प्रतीक रूप में मैंने शरीर के लिए जोरबा को और आत्मा के लिए बुद्ध को चुना है। चाहे मैं जोरबा के विषय में कहूं, या बुद्ध के बारे में बोलूं, मेरे प्रत्येक वक्तव्य में वे दोनों ही स्वतः समाहित हो जाते हैं, क्योंकि मेरे लिए वे अभिन्न हैं। यह सिर्फ बल देने की बात है कि किस पर ज्यादा जोर देना है।
जोरबा केवल शुरुआत है। यदि तुम अपने जोरबा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त होने की स्वीकृति देते हो, तो तुम्हें कुछ बेहतर, कुछ उच्चतर, कुछ महत्तर सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वह मात्र वैचारिक चिंतन से पैदा नहीं हो सकता, वह तुम्हारे अनुभव से जन्मेगा-क्योंकि वे छोटे-छोटे, क्षुद्र अनुभव उकताने वाले हो जाएंगे। गौतम बुद्ध स्वयं इसीलिए बुद्ध हो पाए, क्योंकि वे जोरबा की जिंदगी खूब अच्छी तरह जी चुके थे। पूरब ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उनतीस वर्षों तक बुद्ध इस तरह जीए, जैसा कोई जोरबा कभी न जीया होगा।
गौतम बुद्ध के पिता ने पूरे राज्य की सारी सुंदर लड़कियों को एकत्रित करके बुद्ध के भोग-विलास की व्यवस्था की थी। उन्होंने भिन्न-भिन्न ऋतुओं के लिए, अलग-अलग जगहों पर तीन शानदार महल बनवाए। उनके पास सुंदर बाग-बगीचे और झीलें थीं। बुद्ध का पूरा जीवन सुख-सुविधा संपन्न था, शुद्ध भोग-विलास था! पर उससे वे उकता गए, और यह प्रश्न उनके मन में महत्वपूर्ण होने लगा कि क्या यही सब कुछ है? फिर मैं कल के लिए क्यों जीए जा रहा हूं। जीवन का कुछ अर्थ, कुछ और अभिप्राय होना चाहिए, अन्यथा जीवन सारहीन है।
बुद्धत्व की खोज प्रारंभ होती है-जोरबा को भरपूर जी लेने से। हर आदमी बुद्ध नहीं हो पाता, उसका मूल कारण है कि जोरबा अनजीया रह जाता है। मेरा तर्क देखते हो न! मैं कहता हूं कि जोरबा को जी भर के, पूर्णता से जी लो, तो तुम स्वाभाविक ढंग से बुद्ध के जीवन में प्रवेश कर जाओगे।
अपने शरीर का सुख लो, अपने पार्थिव अस्तित्व को भोगो, इसमें कोई पाप नहीं है। इसके पर्दे में, इसके पीछे छिपा है तुम्हारा आध्यात्मिक विकास, तुम्हारा आत्मिक आनंद! जब तुम भौतिक सुखों से थक जाओगे, केवल तब तुम पूछोगे, "क्या इसके अतिरिक्त कुछ और भी है?'' स्मरण रहे, यह प्रश्न मात्र बुद्धिगत नहीं हो सकता, इसे अस्तित्वगत होना पड़ेगा। "क्या कुछ और भी है?'' जब यह प्रश्न अस्तित्वगत होगा, तभी तुम अपने भीतर वह "कुछ और'' उपलब्ध कर पाओगे।
निश्चित ही बहुत कुछ और भी है। जोरबा तो केवल शुरुआत है। एक बार बुद्धत्व की ज्योति जल जाए, जागरण की आभा तुम्हारी आत्मा पर फैल जाए, तब तुम जानोगे कि सांसारिक सुख छाया भी न था...वहां इतना अधिक आनंद है, परमानंद! लेकिन वह आनंद सुख के विपरीत नहीं है। वस्तुतः वह सुख ही है जो तुम्हें इस आनंद तक ले आया है। जोरबा और बुद्ध के बीच में कोई संघर्ष नहीं है, कोई झगड़ा नहीं है। जोरबा तीर का निशान है, एक संकेत चीन है-यदि तुम उस दिशा में ठीक से अनुसरण करो, तो बुद्ध तक पहुंच जाओगे।
Blogjagat me swagat hai..
बहुत अच्छा लगा। आभार
हिंदी ब्लाग लेखन के लिये स्वागत और बधाई । अन्य ब्लागों को भी पढ़ें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देने का कष्ट करें
osho the great!
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश
आनंद ने कहां, भगवान आपने बताया नहीं उत्तम पुरूष कौन है? कैसे उत्पन्न होते है? तब भगवान ये सुत्र कहां था। आनंद उत्तम पुरूष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते। वे मध्य देश में उत्पन्न होते है। और जन्म से ही धनवान होते है। वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होते है
दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्बत्थ जायति।
यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमधिति।।
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता,वह धीर जहां उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।
इस गाथा का अर्थ बौद्धो ने अब तक जैसा किया है, वैसा नहीं है। सीधा-सीधा अर्थ तो साफ़ मालूम होता है। कि बुद्ध महा धनवान घर में पैदा होते है। फिर कबीर का क्या होगा। फिर क्राइस्ट का क्या होगा। फिर मोहम्मद का क्या होगा। ये तो महा धनवान घरों में पैदा नहीं हुए। तो फिर ये बुद्ध पुरूष नहीं है। ये तो बड़ी संक्रीर्णता हो जाएगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र थे। सही, हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे है, सही, और बुद्ध भी राजपुत्र है सही। इस लिए इस वचन का बौद्धो ने यहीं अर्थ लिया। कि बुद्ध पुरूष राज घरों में पैदा होते है। महा धनवान।
मैं महा धनवान का अर्थ करता हूं—जन्म से ही महा धनवान होते है। इसका अर्थ हुआ कि बुद्ध पुरूष आकस्मिक पैदा नहीं होते, जन्मों-जन्मों की संपदा लेकर पैदा होते है। संपदा भीतर है। संपदा आंतरिक है। महा धनवान ही पैदा होते है। शायद बस आखिरी तिनका रखा जाना है और ऊँट बैठ जाएगा। सब हो चुका है शायद थोड़ी सी कमी रह गयी है। निन्यानवे डिग्री पर उबल रहा है पानी,एक डिग्री ओर, और फिर दुबारा जनम नहीं होगा।
लेकिन बौद्धो ने इसका क्या अर्थ लिया, जानते है? हिंदुओं ने इसका क्या अर्थ लिया? उन्होंने कहा कि बुद्ध पुरूष भारत में ही पैदा होते है—सर्वत्र पैदा नहीं होते। जातीय अहंकार, राष्ट्रीय अहंकार। भारत में ही पैदा होते है। यही है पवित्रतम देश। यही है धर्म भूमि। सदियों से भारत का अहंकार अपने आपकी पूजा करता रहा है। भारत का अहंकार कहता रहा है कि देवता भी यहां पैदा होने को तरसते है, क्योंकि यहां बुद्ध पुरूष पैदा होते है।
फिर क्राइस्ट को क्या कहोगे? फिर जरथुत्त्स को क्या कहोगे? फिर मोहम्मद का क्या करोगे? और फिर बुद्ध के चले जाने के बाद जो बुद्धों की असली परंपरा चली, वह तो चीन में चली और जापान में चली और जापान में चली और बर्मा में चली और लंका में चली। और सैकड़ों व्यक्ति बुद्धत्व को उपल्बध हुए। वे सब भारत के बाहर उपलब्ध हुए। उनको क्या कहोगे?
नहीं, ऐसी संकीर्ण बात इसका अर्थ नहीं हो सकती। भारतीय मन को यह बात सुख देती है। क्योंकि तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। मैं इसके लिए राज़ी नहीं हूं। बुद्ध पुरूष सर्वत्र पैदा नहीं होते,यह सच है। सभी के भीतर यह घटना नहीं घटती इसमें सच्चाई ज्यादा खोजने की जरूरत नहीं है। साफ ही है बात करोड़ों में कभी कोई एक होता है। लेकिन यह एक भारत में ही होता है। ऐसी भ्रांति मत पालना। वह एक कहीं भी हो सकता है। जहां कोई तैयार होगा वहां हो जाएगा।
दूसरी बात—वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते है। यह मध्यदेश ने बड़ी झंझट खड़ी की है। बौद्ध शास्त्रों में। उन्होंने तो हिसाब किताब भी आंककर बता दिया है कि कितना योजन लंबा और कितना योजन चौड़ा मध्यदेश है। तो मध्यदेश में बिहार आ जाता है, उत्तर प्रदेश आ जाता है। थोड़ा सा मध्यप्रदेश का हिस्सा आ जाता है। बस ये मध्य देश है। तो पंजाब में पैदा नहीं हो सकते। सिंध में पैदा नहीं हो सकते। बंगाल में पैदा नहीं हो सकते। ये तो सीमांत देश हो गए। ये मध्यदेश न रहे। यह बात बड़ी ओछी है। ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है।
मैं कुछ इसका अर्थ करता हूं।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा भौतिक शास्त्री है—ली कांत दूनाय। उसने एक अनूठी बात कहीं है। ली कांत दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा कि यह तो मध्यदेश की बात कर रहा है। मगर बुद्ध और ली कांत दूनाय में पच्चीस सौ साल का फासला है। और बिना ली कांत दूनाय के बुद्ध के मध्यदेश की परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए मैं क्षमा करता हूं जिन्होंने दो हजार पाँच सौ साल में मध्यदेश की इस तरह की व्याख्या की है। उन पर मैं नाराज नहीं हूं, क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे।
एक अनूठी बात दूनाय ने खोजी है। और वह यह कि मनुष्य अस्तित्व में ठीक मध्य में है। मध्य देश है। छोटे से छोटा है परमाणु, एटम और बड़ से बड़ा है विश्व। और ली कांत दूनाय ने सिद्ध किया है कि मनुष्य इनके,दोनो के ठीक बीच में मध्यदेश में है। मनुष्य ठीक बीच में खड़ा है। एक छोर पर परमाणु है, उतने ही गुना बड़ा विश्व है मनुष्य से। मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है। मनुष्य और परमाणु के बीच जितना फासला है। उतना ही फासला मनुष्य और विश्व की परिधि के बीच है। वे फासले बराबर है। और मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है।
ली कांत दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा। धम्म पद का यह बचन याद आया। शायद ली कांत दूनाय को तो बुद्ध के इस वचन का कोई पता भी न होगा। हो भी नहीं सकता। लेकिन यह मध्यदेश का अर्थ हो सकता है—होना चाहिए—कि मनुष्य में ही बुद्ध पुरूष हो सकता है। मनुष्य चौराहा है। चौराह है। मनुष्य की कुछ खूबी है, वह समझ लेनी चाहिए वह क्यों मध्यदेश है?
मध्यदेश की कुछ खूबी है, कुछ अड़चन भी है। मध्यदेश की। मध्यदेश का मतलब होता है। बीच में खड़ा है। न इस तरफ है, न उस तरफ। चौराहे पर खड़ा है। मनुष्य का अर्थ है, अभी कहीं गए नहीं, खड़े है, सीढ़ी के बीच में है। दोनों तरफ जाने की सुविधा है—निम्नतम होना चाहें तो ज्यादा नीच और कोई भी नहीं हो सकता। मनुष्य पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। जब तुम कभी-कभी कहते हो, मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया, तो तुम कभी सोचना कि पशुओं ने ऐसा व्यवहार कभी किया है।
जानवर तो केवल तभी मारता है जब भूखा होता है। आदमी खेल में, खिलवाड़ में मारता है। हिंसा खिलवाड़ है। दूसरे का जीवन जाता है। तुम्हारे लिए खेल है।
फिर कोई जानवर अपनी ही जाती के जानवरों को नहीं मारता—कोई सिंह किसी सिंह को नहीं मारता। और कोई सांप किसी सांप को नहीं काटता। और कोई बंदर कभी किसी बंदर की गर्दन काटते नहीं देखा गया। आदमी अकेला जानवर है जो आदमियों को काटता है। और एक-दो को नहीं करोड़ों में काट डालता है। इसके पागलपन की कोई सीमा नहीं है।
आदमी जब गिरता है तो पशु से बदतर हो जाता है। और अगर आदमी उठे तो परमात्मा से उपर हो सका है। बुद्धत्व का अर्थ है: उठना पशुत्व का अर्थ है गिरना। और मनुष्य मध्य में है। इस लिए दोनों तरफ की यात्रा बराबर दूरी पर है। जितनी मेहनत करने से आदमी परमात्मा होता है। उतनी ही मेहनत करने से पशु भी हो जाता है। तुम यह मत सोचना कि एडोल्फ हिटलर कोई मेहनत नहीं करता है। मेहनत तो बड़ी करता है तब हो पाता है। यह मेहनत उतनी ही है जितनी मेहनत बुद्ध ने की भगवान होने के लिए,उतनी ही मेहनत से सह पशु हो जाता है।
जितने श्रम से तुम आपने को गंवा दोगे। तुम पर निर्भर है, तुम ठीक मध्य में खड़े हो। उतने कदम उठाकर तुम पशु के पार पहुंच जाओगे।
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता। वह मध्यदेश में ही उत्पन्न होता है और जन्म से महाधन वान होता है।
तो मनुष्य की महिमा भी अपार है। क्योंकि यहीं से द्वार खुलता है। और मनुष्य का खतरा भी बहुत बड़ा है। क्योंकि यहीं से कोई गिरता है। तो सम्हलकर कदम रखना, एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना। क्योंकि सीढ़ी यहीं है नीचे भी जाती है, जरा चूके कि चले जाओगे।
सदा ख्याल रखना, गिरना सुगम मालूम पड़ता है। क्योंकि गिरने में लगता है कुछ नहीं करना पड़ता, उठना कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि गिरना कभी सुगम नहीं है। उसमे भी बड़ी कठिनाई है, बड़ी चिंता, बड़ा दुःख बड़ी पीड़ा। लेकिन साधारण: ऐसा लगता है गिरने में आसानी है। उतार है—चढ़ाव पर कठिनाई मालूम पड़ती है। लेकिन चढ़ाव का मजा भी है। क्योंकि शिखर करीब आने लगता है आनंद का, आनंद की हवाएँ बहने लगती है। सुगंध भरने लगती है। रोशनी की दुनिया खुलने लगती है।
तो चढ़ाव की कठिनाई है, चढ़ाव का मजा है। उतार की सरलता है, उतार की अड़चन है। मगर हिसाब अगर पूरा करोगे तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बराबर आता है। बुरे होने में जितना श्रम करना पड़ता है। उतना ही श्रम भले होने में पड़ता है। इसलिए वे नासमझ है, जो बुरे होने में श्रम लगा रहे है। उतने में ही तो फूल खिल जाते है। जितने श्रम से तुम दूसरों को मार रहे हो, उतने श्रम में तो अपना पुनर्जन्म हो जाता।
ओशो
एस धम्मो सनंतनो
प्रवचन—67