"मैं यहां तुम्हें स्वप्न देने के लिये नहीं हूं, बल्कि बिलकुल इसके विपरीत मैं यहां तुम्हारे स्वप्नों को धवस्त करने के लिये हूं"
"तुम मेरे बारे यह नहीं कह सकते कि मैं सही हूं या ग़लत। अधिक से अधिक तुम यही कह सकते हो कि मैं उलझन पैदा कर रहा हूं। लेकिन यही मेरा उपाय है: तुम्हें उलझा दूं। कहां तक तुम यह सह सकोगे कि मैं यहां से वहां और वहां से यहां बदलता रहूं। एक दिन तुम चिल्लाने ही वाले हो," दूर रहो! अब निर्णय मैं लूंगा।"
"मैं कोई गंभीर कार्य नहीं कर रहा। मैं कार्य कर ही नहीं रहा। यह मेरी मौज है जो मैं तुमसे बांट रहा हूं। अब तुम इसके साथ क्या क्रते हो यह तुम्हारी समस्या है, मेरी नहीं।"
"मेरी देशना है कि अतीत से संपूर्ण संबंध विच्छेद हो। मैं चाहता हूं कि पहले तुम ज़ोरबा की भांति जीयो। उस नींव पर ही तुम्हारे बुद्धत्व का मंदिर निर्मित होगा। इस तरह हम बाहर और भीतर को एक ही सूत्र में पिरो देंगे। बाहर भी उतना ही तुम्हारा है जितना भीतर।"
"मैं तुम्हें यहां हिन्दू, मुसलमान या ईसाई बनाने के लिये नहीं। वह सब बकवास मेरे लिये नहीं. मैं यहां तुम्हें धार्मिक होने में मदद करने के लिये हूं--बिना किसी विशेषण के. ऍउर एक बार तुम इसे समझ लो तो पूरा संसार एक नये रंग में रंग जाता है."
"मैं कोई कारण नहीं देखता कि भीतर और बाहर में विभाजन किया जाये। मैं गरीब रहा हूं, मैनें अत्यंत गरीबी देखी है, और मैं अमीरी में भी जीया हूं। मेरी मानो समृद्धी दरिद्रता से कहीं बेहतर है। मैं अत्यंत सरल अभिरुचियों का व्यक्ति हूं: मैं किसी भी श्रेष्टतम से संतुष्ट हूं, मैं अधिक नहीं चाहता।"
"मैं तुम्हारे किये कुछ कर नहीं रहा हूं; क्योंकि वह भी एक प्रकार का अहंकार है, कोई भी यह सोचे कि वह तुम्हारे लिये कुछ कर रहा है। यह बस घट रहा है।"
"मैं कोई विचार नहीं हूं और न ही मैं कहीं अटका हूं। मैं प्रवाह में हूं। मैं हैराक्लिटस से सहमत हूं कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते। यदि अनुवाद किया जाए तो इसका अर्थ हुआ: तुम एक ही व्यक्ति को दोबारा नहीं मिल सकते। मैं उससे सहमत ही नहीं हूं बल्कि एक कदम आगे जाता हूं कि एक ही नदी में तुम एक बार भी नहीं उतर सकते। मनुष्य के संसार में यदि इसका अनुवाद किया जाए तो अर्थ यह हुआ कि तुम एक ही व्यक्ति को एक बार भी नहीं मिल सकते क्योंकि एक बार भी जब तुम उसे मिल रहे हो तो वह बदल रहा है, तुम बदल रहे हो, संपूर्ण संसार बदल रहा है।"
"मैं यहां किन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिये नहीं अपितु तुम्हारे भीतर एक विशिष्ट गुणवत्ता पैदा करने के लिये हूं। मैं तुम्हें कुछ समझाने के लिये नहीं बोल रहा; मेरा बोलना बस एक सृजनात्मक घटना है. मेरा बोलना तुम्हें कुछ समझाने का प्रयास नहीं-- वह तो तुम किताबों से भी समझ सकते हो और इस के अतिरिक्त लाखों अन्य तरीकों द्वारा यह संभव है-- मैं तो यहां केवल तुम्हें रूपांतरित करने के लिये हूं."
"मैं एक साधारण व्यक्ति हूं। मेरे पास कोई करिश्मा नहीं और मैं करिश्मे में विश्वास नहीं करता. मैं पद्धतियों में विश्वास नहीं करता. भले ही मैं उनका इस्तेमाल करता हूं लेकिन मैं उन पर विश्वास नहीं करता. मैं एक साधारण व्यक्ति हूं, बहुत आम. मैं भीड़ में खो सकता हूं और तुम कभी मुझे ढूंढ न पाओगे. मैं तुम्हारे आगे नहीं, साथ चलता हूं."
"मैं बेरोज़गार हूं। मैं कुछ भी नहीं कर रहा: सब इच्छाएं मिट गईं हैं, सब करना तिरोहित हो गया है। मैं बस यहां हूं। तुम्हारे लिये मैं बस एक अस्तित्व हूं। यदि तुम मुझे प्रेम करते हो तो तुम मेरा उत्साह से स्वागत करोगे, और तुम्हें अत्यंत लाभ होगा। यदि तिम मुझे घृणा करते हो तो तुम चूक जाओगे और ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी। अब चुनाव तुम्हारा है; लेकिन मैं कुछ नहीं कर रहा।"
"मेरा पूरा प्रयास एक नयी शुरुआत करने का है। इस से विश्व- भर में मेरी आलोचना निश्चित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता-- परवाह किसे है!"
"गौतम बुद्ध अतीत के सब गुरुओं का प्रतिरूप हैं। शिष्य को दूर रखना होगा। उसे अनुशासन, समादर और अज्ञापालन सीखना होगा। यह एक प्रकार से आध्यात्मिक ग़ुलामी हुई। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे गुलाम बनो और मैं नहीं चाह्ता कि तुम मेरा आज्ञापालन करो। मैं सिर्फ यह चाहता हूं कि तुम तुम मुझे समझो और यदि मेरा अनुभव प्रमाणिक है और तुम्हारा विवेक उसे समझ पाता है तो तुम स्वयं ही उसका अनुसरण करोगे। यह आज्ञापालन न हुआ, मैं तुम्हें कुछ करने को नहीं कह रहा, मैं सिर्फ तुम्हें समझने के लिये कह रहा हूं, और फिर तुम्हारा विवेक जहां तुम्हें ले जाये, तुम उसका अनुसरण करो। तुम जो भी बनो, मैं प्रसन्न हूं;बस स्वयं के साथ सच्चे और ईमानदार रहो।"
"मैं तुम्हें लुभा रहा हूं ताकि तुम जीवन के प्रति प्रेमपूर्ण हो सको, थोड़ा और काव्यमयी हो सको, तुम तुच्छ व साधारण के प्रति उदासीन हो सको ताकि तुम्हारे जीवन में उदात्त का विस्फोट हो जाए।"
"मुझे एक उद्धारक की तरह न देखें। इस विचार के कारण ही- कि कोई उद्धारक आ गया है, कोई मसीहा आ गया है- लोग वैसे ही जीते रहते हैं जैसे वे जीते रहे हैं। वे क्या कर सकते हैं? उनका कहना है कि सब कुछ तभी होगा जब कोई मसीहा आयेगा। यह उनका ढंग है रूपांतरण को टालने का, यह उनका ढंग है स्वयं को धोखा देने का। बहुत हो चुका, बहुत दे दिया धोखा स्वयं को। अब और नहीं। कोई मसीहा नहीं आने वाला। तुम्हें स्वयं कार्य करना होगा,तुम्हें स्वयं के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। और जब तुम ज़िम्मेदार होते हो तो सब कुछ स्वयं घटने लगता है।"
"मैं चाहता हूं कि जो भी बाहर उपल्ब्ध है, लोग उसके साथ सहजता से जीयें। जल्दी न करें क्योंकि जो भी अनजीया रह गया तुम्हें वापस खींचेगा। इसे खत्म करें। और तब तुम्हें अपने घर से या अपने बैंक के खाते से भागना न पड़ेगा, क्योंकि वे फिर तुम पर बोझ न रहेंगे। उनका कोई अर्थ ही न रह जायेगा। संभव है उनका कोई उपयोग हो सके, लेकिन उनमें कोई ग़लती नहीं।"
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प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| बुधवार, जनवरी 27, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
i love you
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश
जनसंख्या विस्फोट
जीने का क्या अर्थ?
जीने का इतना ही अर्थ है कि ‘ईग्जस्ट’ करते है। हम दो रोटी खा लेते है, पानी पी लेते है। और कल तक के लिए जी लेते है। लेकिन जीना ठीक अर्थों में तभी उपलब्ध होता है जब हम ‘एफ्ल्युसन्स’ को, समृद्धि को उपलब्ध हो।
जीवन का अर्थ है ‘ओवर फ्लोइंग’ जीने का अर्थ है, कोई चीज हमारे ऊपर से बहने लगे।
एक फूल है। आपने कभी ख्याल किया है कि फूल कैसे खिलता है पौधे पर? अगर पौधे को खाद न मिले, ठीक पानी न मिले, तो पौधा जिंदा रहेगा, लेकिन फूल नहीं खिलायेगे। फूल ‘ओवर फ्लोइंग’ है। जब पौधे में इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाती है कि अब पत्तों को, शाखाओं को, जड़ों को कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है।
तब पौधे के पास कुछ अतिरिक्त इकट्ठा हो जाता है। तब फूल खिलता है। फूल जो है, वह अतिरक्ति है, इसलिए फूल सुन्दर है। वह अतिरेक है। वह किसी चीज का बहुत हो जाने के बहाव से है।
जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक है। जीवन सौंदर्य ‘ओवर फ्लोइंग’ है, ऊपर से बह जाना है।
जीवन के सब आनंद भी अतिरेक है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह सब ऊपर से बह जाता है।
महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे है, कृष्णा और राम राजाओं के बेटे है। ये ‘ओवर फ्लोइंग’ है। ये फूल जो खिले है गरीब के घर में नहीं खिल सकते थे। कोई महावीर गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई बुद्ध गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई राम और कोई कृष्ण भी नहीं।
गरीब के घर में ये फूल नहीं खिल सकते। गरीब सिर्फ जी सकता है, उसका जीना इतना न्यूनतम है कि उससे फूल खिलनें का कोई उपाय नहीं है। गरीब पौधा है, वह किसी तरह जी लेता है। किसी तरह उसके पत्ते भी हो जाते है, किसी तरह शाखाएं भी निकल आती है।
लेकिन न तो वह पूरी ऊँचाई ग्रहण कर पाता है, न वह सूरज को छू पाता है। न आकाश की तरफ उठ पाता है। न उसमें फूल खिल पाते है। क्योंकि फूल तो तभी खिल सकते है, जब पौधे के पास जीने से अतिरिक्त शक्ति इकट्ठी हो जाय। जीने से अतिरिक्त जब इकट्ठा होता है, तभी फूल खिलते है।
ताज महल भी वैसा ही फूल हे। वह अतिरेक से निकला हुआ फूल है।
जगत में जो भी सुंदर है, साहित्य है, काव्य है, वे सब अतिरेक से निकले हुए फूल है।
गरीब की जिंदगी में फूल कैसे खिल सकते है?
लेकिन, हम रोज अपने को गरीब करने का उपाय करते चले जाते है? लेकिन ध्यान रहे, जीवन में जो सबसे बड़ा फूल है परमात्मा का….वह संगीत साहित्य, काव्य,चित्र और जीवन के छोटे-छोटे आनंद से भी ज्यादा शक्ति जब ऊपर इकट्ठी होती है, तब वह परम फूल खिलता है परमात्मा का।
लेकिन गरीब, समाज उस फूल के लिए कैसे उपयुक्त बन सकता है। गरीब समाज रोज दीन होता जाता है। रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप जब दो बेटे पैदा करता है, तो अपने से दुगुने गरीब पैदा करता जाता है। जब वह अपने चार बेटों में संपति का विभाजन करता है तो उसकी संपति नहीं बँटती।
संपति तो है ही नहीं। बाप ही गरीब था, बाप के पास ही कुछ नहीं था। तो बाप सिर्फ अपनी गरीबी बांट देता है। और चौगुना गरीब समाज में, अपने बच्चों को खड़ा कर जाता है।
हिंदुस्तान सैकड़ों सालों से अमीरी नही, सिर्फ गरीबी बांट रहा है।
हां, धर्म गुरु सिखाते है ब्रह्मचर्य। वे कहते है कि कम बच्चे पैदा करना हो तो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। किन्तु गरीब आदमी के लिए मनोरंजन के सब साधन बंद है। और धर्म-गुरु कहते है कि वह ब्रह्मचर्य धारण करे। अर्थात जीवन में जो कुछ मनोरंजन का साधन उपलब्ध है।
उसे भी ब्रह्मचर्य से बंद कर दे। तब तो गरीब आदमी मर ही गया। वह चित्र देखने जाता है तो रूपया खर्च होता है। किताब पढ़ने जाता है तो रूपया खर्च होता है। संगीत सुनने जाता है तो रूपया खर्च होता है। एक रास्ता और सुलभ साधन था, धर्म-गुरु कहता है कि ब्रह्मचर्य से उसे भी बंद कर दे।
इसीलिए धर्म-गुरु की ब्रह्मचर्य की बात कोई नहीं सुनता, खुद धर्म गुरु ही नहीं सुनते अपनी बात। यह बकवास बहुत दिनों चल चुकी। उसका कोई लाभ नहीं हुआ। उससे कोई हित भी नहीं हुआ।
विज्ञान ने ब्रह्मचर्य की जगह एक नया उपाय दिया, जो सर्वसुलभ हो सकता है। वह है संतति नियमन के कृत्रिम साधन,जिससे व्यक्ति को ब्रह्मचर्य में बंधने की कोई जरूरत नहीं। जीवन के द्वार खुले रह सकत है, अपने को स्पेस, दमित करने की कोई जरूरत नहीं।
और यह भी ध्यान रहे कि जो व्यक्ति एक बार अपनी यौन प्रवृति को जोर से दबा देता है। वह व्यक्ति सदा के लिए किन्हीं अर्थों में रूग्ण हो जाता है। यौन की वृति से मुक्त हुआ जा सकता है। लेकिन यौन की वृत्ति को दबा कर कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता।
यौन की वृति से मुक्त हुआ जा सकता है। अगर यौन में निकलने वाली शक्ति किसी और आयाम में किसी और दिशा में प्रवाहित हो जाये, तो मुक्त हुआ जा सकता है।
एक वैज्ञानिक मुक्त हो जाता है। बिना किसी ब्रह्मचर्य के, बिना राम-राम का पाठ किये, बिना किसी हनुमान चालीसा पढ़ एक वैज्ञानिक मुक्त हो जाता है। एक संगीतज्ञ भी मुक्त हो सकता है। एक परमात्मा का खोजी भी मुक्त हो सकता है।
ध्यान रहे,लोग कहते है ब्रह्मचर्य जरूरी है, परमात्मा की खोज के लिए। मैं कहता हूं,यह बात गलत है। हां परमात्मा की खोज पर जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। अगर कोई परमात्मा की खोज में पूरी तरह चला जाये, तो उसकी सारी शक्तियां इतनी लीन हो जाती है। कि उसके पास यौन कि दिशा में जाने के लिए न शक्ति का बहाव बचता है और न ही आकांशा।
ब्रह्मचर्य से कोई परमात्मा की तरफ नहीं जा सकता, लेकिन परमात्मा की तरफ जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जात है।
लेकिन, अगर हम किसी से कहें कि वह बच्चे रोकने के लिए ब्रह्मचर्य का उपयोग करे, तो यह अव्यावहारिक है।
गांधी जी निरंतर यहीं कहते रहे, इस मुल्क के और भी महात्मा यहीं कहते है कि ब्रह्मचर्य का उपयोग करो। लेकिन, गांधी जैसे महान आदमी भी ठीक-ठीक अर्थों में ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध नहीं हुए।
वे भी कहते है कि मेरे स्वप्न में कामवासना उतर आती है। वे भी कहते है कि दिन में तो मैं संयम रख पाता हूं। पर स्वप्नों में सब संयम टूट जाता है।
और जीवन के अंतिम दिनों में एक स्त्री को बिस्तर पर लेकर, सो कर वे प्रयोग करते थे कि अभी भी कहीं कामवासना शेष तो नहीं रह गयी।
सत्तर साल की उम्र में एक युवती को रात में बिस्तर पर लेकर सोते थे, यह जानने के लिए कि कहीं काम-वासना शेष तो नहीं रह गई है।
पता नहीं,क्या परिणाम हुआ। वे क्या जान पाये। लेकिन एक बात पक्की है कि उन्होंने सत्तर वर्ष की उम्र तक शक रहा होगा। कि ब्रह्मचर्य उपल्बध हुआ या नहीं। अन्यथा इस परीक्षा की क्या जरूरत थी।
ब्रह्मचर्य की बात एकदम अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है। कृत्रिम साधनों का उपयोग किया जा सकता है। और मनुष्य के चित पर बिना दबाव दिये उनका उपयोग किया जा सकता है।
ओशो
संभोग से समाधि की और
प्रवचन—9
जनसंख्या विस्फोट