न कभी जन्मे - न कभी विदा हुए, जो सिर्फ इस ग्रह पृथ्वी ग्रह पर अतिथि हुए 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच
इन वस्तुत: अमर शब्दों के साथ, ओशो अपनी जीवनी को नकारते हैं और अपना मृत्युवाक्य लिखते हैं। इससे पहले की हर चीज से अपना नाम हटाने के बाद, वह अंततः "ओशो" स्वीकार करने के लिए तैयार हुए, उन्होंने कहा कि यह विलियम जेम्स' "के ओशियानिक, महासागर''से व्युत्पन्न है "यह मेरा नाम नहीं है," "यह एक स्वास्थ्यदायी ध्वनि है।"
उनके बिना किसी पूर्व तैयारी के दिये गये प्रवचन, जो उन्होने दो दशकों से अधिक की अवधि में विश्व भर के लोगों के समक्ष दिये, सभी के सभी ध्वनि-मुद्रित हैं, जिनमें कुछ प्रवचन वीडियो पर भी उपलब्ध हैं- ये कैसेट्स कोई भी ,कहीं भी सुन सकता है, और तब, ओशो का कहना है," वही मौन उपलब्ध होगा।
इन प्रवचनों का अनुवाद अब बहुत सी भाषाओं में, विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत प्रकाशित हो रहा है।
इन प्रवचनों में मनुष्य के मन का पहली बार इतनी बारीकी से परीक्षण किया गया है कि इसमें छिपी सूक्षमतम रेखा भी बच नहीं पायी। मन मनोविज्ञान की तरह, मन भाव की तरह, मन मन/देह की तरह, मन नीतिज्ञ की तरह, मन आस्था के रूप में, मन धर्म की तरह, मन इतिहास की तरह, मन राजनीति और सामाजिक विकास की तरह- उन्होंने मन के सभी पहलुओं का परीक्षण और अध्ययन करके उनका एकीकरण कर दिया है; और उन्हें सौंप दिया है हमें,एक आशीर्वाद के रूप में, ताकि हम रूपांतरण की मौलिक खोज पर निकल सकें।
इस प्रक्रिया के दौरान ओशो जहां भी पाखंड व आडंबर देखते हैं उसे बेनकाब करते हैं। एक लेखक के रूप में टॉम रॉबिन्ज़ ने इस बात को बड़े सुंदर शब्दों में कहा है: "हरित तृण क्षेत्र से आती बयार जब मेरे द्वार खटखटाती है तो मैं उसे पहचानता हूं। और ओशो वैसी ही आच्छादित कर देने वाली मीठी बयार के समान हैं जिसने इस पूरे ग्रह को घेर लिया है - पंडितों, पुरोहितों की टोपियां उड़ाती हुई, झूठ की धूल को पदाधिकारियों के मेज़ पर झाड़ती हुई, बलशालियों के गढ़ में जाकर मूर्खों को लताड़ती हुई, विकृत समझदारों का पर्दाफाश करती हुई और आध्यात्मिक रूप से मॄत लोगों की पीठ को गुदगुदा कर उन्हें जीवनदान देती हुई।"
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| बुधवार, जनवरी 27, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
आभार आप सभी पाठको का ....
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और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश
ओशो की वाणी ने ऐसा गज़ब ढाया |
खुल गए सूत्र ढह गयी माया ||
द्वार खुला अनंत का बदल गयी काया |
ओशो की वाणी ने ऐसा गज़ब ढाया ||
हिप्पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।
इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्सिम्प फॉर ए रेव्होल्यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्वर्ण-सूत्र। और उसमें पहला स्वर्ण बहुत अद्भुत लिखा है। और एक ढंग से पहले स्वर्ण सूत्र लिखा है: ‘दि फार्स्ट गोल्डन रूल इज़ दैट देयर आर नौ गोल्डन रूल्स’ पहला स्वर्ण नियम यही है कि कोई भी स्वर्ण-नियम नहीं है।
हिप्पी वाद के संबंध में जो पहली बात कहना चाहूंगा, वह यह कि हिप्पी वाद कोई वाद नहीं है, समस्त वादों का विरोध है। पहली पहले इस ‘वाद’ को ठीक से समझ ले।
पाँच हजार वर्षों से मनुष्य को जिस चीज ने सर्वाधिक पीड़ित किया है वह है वाद—वह चाहे इस्लाम हो, चाहे ईसाइयत हो, चाहे हिन्दू हो, चाहे कम्यूनिज़म हो, सोशलिज्म हो, फासिस्ट, या गांधी-इज्म हो। वादों ने मनुष्य को बहुत ज्यादा पीड़ित किया है।
मनुष्य इतिहास के जितने युद्ध है, जितना हिंसा पात है, वह सब वादों के आसपास धटित हुआ है। वाद बदलते चले गये है, लेकिन नये वाद पुरानी बीमारियों को जगह ले लेते है और आदमी फिर वही का वहीं खड़ा हो जाता है।
1917 में रूस में पुराने वाद समाप्त हुए, पुराने देवी-देवता विदा हुए तो नये देवी-देवता पैदा हो गये। नया धर्म पैदा हो गया। क्रेमलिन अब मक्का और मदीना से कम नहीं है। वह नयी काशी है, जहां पूजा के फूल चढ़ाने सारी दूनिया के कम्युनिस्ट इकट्ठे होते है। मूर्तियां हट गई, जीसस क्राइस्ट के चर्च मिट गये। लेकिन लेनिन की मृत देह क्रेमलिन के चौराहे पर रख दी गयी है। उसकी भी पूजा चलती है।
वाद बदल जाता है,लेकिन नया वाद उसकी जगह ले लेता है।
हिप्पी समस्त बादों से विरोध है। हिप्पी के नाम से जिन युवकों को आज जाना जाता है, उनकी धारणा यह है कि मनुष्य बिना वाद के जी सकता है। न किसी धर्म की जरूरत है, न किसी शास्त्र, न किसी सिद्धांत की, न किसी विचार सम्प्रदाय, आइडियालॉजी की। क्योंकि उनकी समझ यह है जितना ज्यादा विचार की पकड़ जोती है, जीवन उतना ही कम हो जाता है। हिप्पियों की इस बात से मैं अपनी सहमति जाहिर करना चाहता हूं। इन अर्थों में वे बहुत सांकेतिक है, सिम्बालिक है और आने वाले भविष्य की एक सूचना देते है।
आज से 100 वर्ष बाद दुनिया में जो मनुष्य होगा, वह मनुष्य वादों के बाहर तो निश्चित ही चला जायेगा। वाद का इतना विरोध होने का कारण क्यो है?
हिप्पियों के मन में उन युवकों के मन में जो समस्त वादों के विरोध में चले गए है। समस्त मंदिरों, समस्त चर्चों के विरोध में चले गये है। जाने का कारण है। और कारण है इतने दिनों का निरंतर का अनुभव। वह अनुभव यह है कि जितना ही हम मनुष्य के ऊपर वाद थोपते है। उतनी ही मनुष्य की आत्मा मर जाती है।
जितना बड़ा ढांचा होगा वाद का, उतनी ही भीतर की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि हममें से बहुत से लोग मर तो बहुत पहले जाते है दफनाए बहुत बाद में जाते है। कोई 30 साल में मर जाता है और 70 साल में दफनाया जाता है। हम उसी दिन अपनी स्वतंत्रता, अपना व्यक्तित्व अपनी आत्मा खो देते है, जिस दिन कोई विचार का कोई ढांचा हमें सब तरफ से पकड़ लेता है।
सींकचे तो दिखाई पड़ते है लोहे के, कारागृह दिखाई पड़ते है लोहे के, लेकिन विचार के कारागृह दिखाई नहीं पड़ते और जो कारागृह जितना कम दिखाई पड़ता है उतना ही खतरनाक है।
अभी में एक नगर से विदा हुआ। बहुत से मित्र छोड़ने आए थे जिस कम्पार्टमेंट में मैं था उसमें एक साथी थे। उन्होंने देखा कि बहुत मित्र मुझे छोड़ने आये है। तो जैसे ही मैं अंदर प्रविष्ट हुआ, गाड़ी चली, उन्होंने जल्दी से मेरे पैर छुए और कहा कि महात्मा जी, नमस्कार करता हूं। बड़ा आनंद हुआ कि आप मेरे साथ होंगे। मैंने उनसे कहा कि ठीक से पता लगा लेना कि महात्मा हू या नहीं। आपने तो जल्दी पैर छू लिये। अब अगर मैं महात्मा सिद्ध न हुआ तो पैर छूने को वापस कैसे लेंगे?
उन्होंने कहा, नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, आपके कपड़े कहते है। मैंने कहा, अगर कपड़ों से कोई महात्मा होता तो तब तो पृथ्वी सारी की सारी कभी की महात्मा हो गई होती। उन्होंने कहा कि नहीं इतने लोग छोड़ने आये थे? तो मैंने कहा कि किराये के आदमी इतने ज्यादा लोगों को छोड़ने आते है कि उसका कोई मतलब नहीं रहा है। वे कहने लगे, कम से कम आप हिन्दू तो है?
उन्होंने सोचा कि न सही कोई महात्मा हों, हिन्दू होंगे तो भी चलेगा। कोई ज्यादा गुनाह नहीं हुआ, पैर छू लिए। तो मैंने कहा, नहीं, हिन्दू भी नहीं हूं। तो उन्होंने कहा,आप आदमी कैसे है? कुछ तो होंगे, मुसलमान होंगे, ईसाई होंगे? मैंने उनसे पूछा कि क्या मेरे सिर्फ आदमी होने से आपको कोई एतराज है? क्या सिर्फ आदमी होकर मैं नहीं हो सकता हूं, मुझे कुछ और होना ही पड़ेगा? उनकी बेचैनी देखने जैसी थी। कंडक्टर को बुलाकर वे दूसरे कंपार्टमेंट में अपना सामान ले गये।
मैं थोड़ी देर बाद उनके पास गया और मैंने उनको कहा आप तो कहते थे सत्संग होगा, बड़ा आनंद होगा। आप तो चले गये। क्या एक आदमी के साथ सफर कना उचित नहीं मालूम पड़ा? हिन्दू के साथ सफर हो सकता था। आदमी के साथ बहुत मुश्किल है।
आज पश्चिम में जिन युवकों ने हिप्पियों का नाम ले रखा है, उनकी पहली बगावत यह है कि वे कहते है कि हम सीधे आदमी की तरह जीयेंगे। न हम हिन्दू होंगे, न हम कम्युनिस्ट होंगे। न हम सोशलिस्ट होंगे, न ईसाई होंगे; हम सीधे निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश करेंगे। निपट आदमी की तरह जीने की जो भी कोशिश है, वह मुझे तो बहुत प्रीतिकर हे।
हिप्पी नाम तो नया है। लेकिन घटना बहुत पुरानी है। मनुष्य के इतिहास में आदमी ने कई बाद निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश की है। निपट आदमी की तरह जीने में बहुत से सवाल है।
धर्म नहीं, चर्च नहीं, समाज नहीं—अंतत: देश भी नहीं; क्योंकि देश, राष्ट्र सब उपद्रव है। सब बीमारियां है।
कल तक पाकिस्तान की भूमि हमारी मातृभूमि हुआ करती थी। अब वह हमारे शत्रु की मातृभूमि है। जमीन वहीं की वही है। कहीं टूटी नहीं, कहीं दरार नहीं पड़ी।
मैंने सुना है, एक पागल खाना था हिन्दुस्तान के बंट वारे के समय। हिन्दुस्तान पाकिस्तान की सीमा पर। अब वह भी सवाल उठा कि इस पागल खाने को कहां जाने दे—हिन्दुस्तान में कि पाकिस्तान में। कोई राजनैतिक उत्सुक न था कि वह पागलखाना कहीं भी ला जाये। तो पागलों से ही पूछा अधिकारियों ने कि तुम कहां जाना चाहते हो। हिन्दुस्तान में या पाकिस्तान में? तो उन पागलों ने कहा हम तो जहां है, वहां बड़े आनंद में है। हमें कहीं जाने की कोई इच्छा नहीं है। पर उन्होंने कहा कि जाना तो पड़ेगा ही, यह इच्छा का सवाल नही है। और तुम घबराओ मत। तुम हिन्दुस्तान में चाहो तो हिन्दुस्तान में चले जाओ,पाकिस्तान में चाहो तो पाकिस्तान में चले जाओ। तुम जहां हो वहीं रहोगे। यहां से हटना न पड़ेगा।
तब तो वे पागल बहुत हंसने लगे। उन्होंने कहा,हम तो सोचते थे कि हम ही पागल है। लेकिन ये अधिकारी और भी पागल मालूम पड़ता है। क्योंकि ये कहता है कि जाना कहीं न पड़ेगा और पूछते है जाना कहां चाहते हो। उन पागलों ने कहा, कि जब जाना ही नहीं पड़ेगा तो जाना चाहते हो का सवाल क्या है? उन पागलों को समझाना बहुत मुश्किल हुआ। आखिर आधा पागलखाना बीच से दीवार उठाकर पाकिस्तान में चला गया, आधा हिन्दुस्तान में चला गया।
मैंने सुना है कि अभी वे पागल एक दूसरे की दीवार पर चढ़ जाते है और आपस में सोचते है कि बड़ी अजीब बात है, हम वहीं के वहीं है, लेकिन तुम पाकिस्तान में चले गये हो और हम हिन्दुस्तान में चले गये है।
ये पागल हमसे कम पागल मालूम होत है। हमने जमीन को बांटा है, आदमी को बांटा है।
हिप्पी कह रहा है, हम बांटेंगे नहीं; हम निपट बिना बटे हुए आदमी की तरह जीना चाहते है। और बाद बांटते है। बांटने की सबसे सुविधापूर्ण तरकीब बाद है इज्म है।
इसलिए हिप्पी कहते है कि हम किसी इज्म में नहीं है। ऊब चुके तुम्हारे बादों से, तुम्हारे धर्मों से। हमें निपट आदमी की तरह छोड़ दो—हम जैसे है, वैसे जीना चाहते है।
यह तो पहला सूत्र है। इसलिए मैंने कहा, यह बात पहले समझ लेना जरूरी है। हिप्पी इज्म जैसी चीज नहीं है, हिप्पीज है। हिप्पी वाद नहीं है। हिप्पी जरूर है।
दूसरी बात ध्यान में लेने जैसी है और वह यह कि हिप्पियों की ऐसी धारण है कह न केवल आदमी की तरह जीयें बल्कि सहज आदमी की तरह जीयें। हजारों साल से सभ्यता ने आदमी को असहज बनाया है, जैसा वह नहीं है वैसा बनाया है। हजारों साल की सभ्यता संस्कार, व्यवस्था ने आदमी को कृत्रिम को झूठा बनाने की कोशिश की है। उसके हजार चेहरे बना दिये है।
मैने सुना है कह अगर एक कमरे में मैं और आप दो जन मिलें तो वहां दो जन नहीं होंगे, वहां कम से कम 6 जन होंगे। एक मैं—जैसा मैं हूं, एक मैं—जैसा की मैं सोचता हूं। और एक मैं—जैसाकि आप मुझे समझते है कि मैं हूं। और तीन आप और तीन मैं। उस कमरे में जहां दो आदमी मिलते है कम से कम 6 आदमी मिलते है। हजार मिल सकते है, क्योंकि हमारे हजार चेहरे है, मुखौटे है।
हर आदमी कुछ है ओर, कुछ दिखला रहा है। कुछ है, कुछ बन रहा है। और कुछ दिखला रहा है। और फिर न मालुम कितने चेहरे है—जैसे दर्पण के आगे दर्पण, और दर्पण के आगे दर्पण और एक दूसरे के प्रतिबिम्ब हजार-हजार प्रतिबिम्ब हो गये है। इन प्रतिबिम्बों की भीड़ में पता लगाना ही मुश्किल है कि कौन है आप। तय करना ही मुश्किल है कि कौन सा चेहरा है आपका अपना?
पत्नी के सामने आपका चेहरा दूसरा होता है। बेटे के सामने दूसरा हो जाता है। नौकर के सामने एक होता है। मालिक के सामने एक हो जाता है। जब आप मालिक के सामने खड़े होते है तो जो पूंछ आपके पास नहीं है, वह हिलती रहती है। और जब आप नौकर के पास खड़े होते है तब जो पूंछ उसके पास नहीं है, आप गौर से देखते रहते है कि वह हिला रहा है या नहीं हिला रहा है।
हिप्पियों की धारण मुझे प्रीतिकर मालूम पड़ती है। वे कहते है कि हम सहज आदमियों की तरह जीयेंगे। जैसे हम है। धोखा न देंगे। प्रवंचना, पाखंड, डिसेप्शन खड़ा न करेंगे। ठीक है, तकलीफ होगी तो तकलीफ झेलेंगे। लेकिन हम जैसे हम है, वैसे ही रहेंगे।
अगर हिप्पी को लगता है कि वह किसी से कहे कि मुझे आप पर क्रोध आ रहा है और गाली देने का मन होता है तो वह आपसे आकर कहेगा पास में बैठकर कि मुझे आप पर बहुत क्रोध आ रहा है और मैं आपको दो गाली देना चाहता हूं।
मैं समझता हूं कि वह बड़ा मानवीय गुण है। और वह क्षमा मांगने नहीं आयेगा पीछे, जब तक उसे लगे न, क्योंकि वह कहेगा गाली देने का मेरा मन था, मैंने गाली दी और अब जो भी फल हो उसे लेने के लिए मैं तैयार हूं। लेकिन गाली भीतर ऊपर मुस्कराहट इस बात को इंकार कर रहा हूं। लेकिन हमारी स्थिति यह है कि भीतर कुछ है, बहार कुछ। भीतर एक नर्क छिपाये हुए है हम, बाहर हम कुछ और हो गये है। एक आदमी एक जीता-जागता झूठ है।
हिप्पी का दूसरा सूत्र यह है कि हम जैसे है, वैसे है। हम कुछ भी रूकावट न करेंगे, छिपा वट न करेंगे।
मेरे एक मित्र हिप्पियों के एक छोटे से गांव में जाकर कुछ दिन तक रहे तो मुझसे बोले कि बहुत बेचैनी होती है वहां। क्योंकि वहां सारे मुखौटे उखड जाते है। वहां बजाय एक युवक एक युवती के पास आकर कविताएं कहे, प्रेम की और बातें करे हजार तरह की, वह उससे सीधा ही आकर निवेदन कर देगा कि मैं आपको भोगना चाहता हूं। वह कहेगा कि इतने सारे जाल के पीछे इरादा तो वही है। उस इरादे के लिए इतने जाल बनाने की कोई जरूरत नहीं है। वह कह सकता है एक लड़की को जाकर कि मैं तुम्हारे साथ बिस्तर पर सोना चाहता हूं।
बहुत घबरानें वाली बात लगेगी। लेकिन सारी बातचीत और सारी कविता और सारे संगीत और सारे प्रेम चर्चा के बाद यही घटना अगर घटने वाली है। तो हिप्पी कहता है कि इसे सीधा ही निवेदन कर देना उचित है। किसी को धोखा तो न हो, वह लड़की अगर न चाहती है सोना, तो कह तो सकती है कि क्षमा करो।
एक जाल सभ्यता ने खड़ा किया है, जिसने आदमी को बिलकुल ही झूठी इकाई बना दिया है।
अब एक पति है, वह अपनी पत्नी से रोज कहे जा रहा है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। और भीतर जानता है कि यह मैं क्यों कहा रहा हूं। एक पत्नी है, वह अपने पति से रोज कहे जा रही है कि मैं तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकती और उसी पति के साथ एक क्षण जीना मुश्किल हुआ जा रहा है।
बाप बेटे से कुछ कह रहा है। कि बाप बेटे से कहा रह है कि मैं तुम्हें इसलिए पढ़ा रहा हूं कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। और वह पढ़ा इसलिए रहा है कि बाप अपढ़ रह गया है। और उसके अहंकार की चोट घाव बन गयी है। वह अपने बेटे को पढ़ा कर अपने अहंकार की पूर्ति करना चाहता है। बाप नहीं पहुंच पाया मिनिस्टरी तक, वह बेटे को पहुंचाना चाहता है। पर वह कहता है बेटे को मैं बहुत प्रेम करता हूं इसलिए…..लेकिन उसे पता नहीं है कि बेटे को मिनिस्टरी तक पहुंचाना बेटे को नर्क तक पहुंचा देना है। अगर प्रेम है तो कम से कम बाप एक बात तो न चाहेगा कि बेटा राजनीतिज्ञ हो जाए।
सारी दूनिया प्रेम कर रही है। लेकिन प्रेम का कोई विस्फोट कभी नहीं होता है। सारी दूनिया प्रेम कर रही है और जब भी विस्फोट होता है तो घृणा का होता है। हिप्पी कहता है जरूर हमारा प्रेम कहीं धोखे का है। कर रहे है घृणा कह रहे है प्रेम।
मैं एक स्त्री को कहता हूं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं और मेरी स्त्री जरा पड़ोस के आदमी की तरफ गौर से देख ले तो सारा प्रेम विदा हो गया और तलवार खिंच गयी। कैसा प्रेम है। अगर मैं इस स्त्री को प्रेम करता हूं तो ईर्ष्यालु नहीं हो सकता। प्रेम में ईर्ष्या की कहां जगह है? लेकिन जिस को हम प्रेम कहते है वे सिर्फ एक दूसरे के पहरेदार बन जाते है और कुछ भी नहीं,और एक दूसरे के लिए ईर्ष्या का आधार खोज लेते है। जलते है,जलाते है परेशान करते है।
हिप्पी यह कह रहा है कि बहुत हो चुकी यह बेईमानी। अब हम तो जैसे है, वैसे है। अगर प्रेम है तो कह देंगे कि प्रेम है और जिस चुक जायेगा उस दिन निवेदन कर देंगे कि प्रेम चुक गया। अब झूठी बातों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है, मैं जाता हूं।
लेकिन पुराने प्रेम की धारणा कहती है कि प्रेम होता है तो फिर कभी नहीं मिटता, शाश्वत होता है। हिप्पी कहता है होता होगा। अगर होगा तो कह दूँगा कि शाश्वत है, टिका है। नहीं होगा तो कह दूँ की नहीं है।
एक जाल है जो सभ्यता ने विकसित किया है। उस जाल में आदमी की गर्दन ऐसे फंस गई है, जैसे फांसी लग गई हो उस जाल से बगावत है हिप्पी की।
ओशो
संभोग से समाधि की और
विद्रोह क्या है,
प्रवचन—10