मन भयभीत है, और उसका डरना स्पष्ट और तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। इसका सार क्या है? ऐसा कुछ क्यों करना चाहिए जिसमें वह मिट जाए? गौतम बुद्ध से बार-बार पूछा जाता था: ‘आप बहुत अजीब व्यक्ति हैं। हम तो यहां अपने आत्म अनुभव के लिए आए थे और आपका ध्यान ‘आत्मा का’ अनुभव न कराना है।’ सुकरात एक महान प्रज्ञावान पुरुष था , लेकिन वह मन तक सीमित था: ‘स्वयं को जानो’। लेकिन जानने के लिए कोई ' स्वयं ' है ही नहीं । झेन की घोषणा है कि ' जानने को आत्मा जैसा कुछ है ही नहीं।’ जानने जैसा कुछ भी नहीं है। तुम्हें बस पूर्ण के साथ एक हो जाना है। और भयभीत होने की कोई आवश्यकता ही नहीं है... जरा क्षण भर के लिए सोचो: जब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था, क्या कोई व्यग्रता, कोई चिंता या कोई पीड़ा थी? तुम थे ही नहीं, तो कोई समस्या भी न थी। समस्या तो तुम स्वयं ही हो, तुमसे ही समस्या शुरू होती हैं , और ज्यों -ज्यों तुम बडे होते हो, अधिक से अधिक समस्याएं बढ़ जाती हैं...लेकिन तुम्हारे जन्म से पूर्व, क्या कोई समस्या थी? झेन सदगुरु नवागतों से निरंतर पूछते थे--‘ तुम अपने पिता के जन्म के पूर्व कहां थे? ' एक निरर्थक सा प्रश्न है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण। वे तुमसे पूछ रहे हैं ‘यदि तुम नहीं थे तो कोई समस्या थी ही नहीं, इसलिए फिक्र करने की बात क्या है? यदि तुम्हारी मृत्यु अंतिम मृत्यु बन जाती है, और सारी सीमाएं मिट जाती हैं, तो तुम नहीं रहोगे, लेकिन अस्तित्व तो होगा ही। नृत्य तो होगा, पर नर्तक नहीं होगा । गीत तो होगा, पर गायक नहीं होगा। यह अनुभव केवल तभी संभव है, जब तुम मन के पार अपने अस्तित्व की गहराइयों में उतरो, उस केंद्र अथवा जीवन के स्त्रोत पर पहुंचो, जहां से तुम्हारा जीवन प्रवाहित रहा है। अचानक तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारी स्वयं की छवि दूसरों के मत पर आधारित थी। तुम छविहीन और अनंत हो। तुम एक पिंजरे में रह रहे थे। जिस क्षण तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारे स्त्रोत अनंत हैं, अचानक पिंजरा विलुप्त हो जाता है, और तुम नीलाकाश में उड.ने के लिए अपने पंख खोल सकते हो और आकाश में जाकर विलुप्त हो सकते हो। यह विलुप्त होना ही अनत्ता है, यह मिट जाना ही स्वयं से मुक्त हो जाना है। लेकिन यह बुद्धि के द्वारा होना संभव नहीं है, यह केवल ध्यान के द्वारा हो सकता है। ‘झेन’ ध्यान का ही दूसरा नाम है। डी. टी. सुजूकी जैसे विलक्षण व्यक्ति ने पश्चिमी जगत को झेन से परिचित कराया, और इसी के फलस्वरूप पश्चिम में सैंकडों बहुत सुंदर पुस्तकें ‘झेन’ पर लिखी गई। उसने पथ प्रदर्शक का कार्य किया, लेकिन वह स्वयं कोई झेन सदगुरु न था और न ही ध्यानी व्यक्ति ही था। वह एक महान विद्वान था और उसका प्रभाव सभी देशों के बुद्धिजीवियों तक फैला। वह तुरंत ही पश्चिम के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। जैसे जैसे पुराने धर्म विशेषरूप से पश्चिम में लडखडा रहे हैं...। ईसाई धर्म के साम्राज्य की जडें हिल गई हैं। वे लोग उसे संभालने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, पर यह संभव नहीं है। उसकी इमारत धराशायी हो रही है। और प्रतिदिन एक खाई बडी से बडी होती जा रही है, अथाह पाताल जैसी गहराई, जिसे देख कर चक्कर आने लगते हैं। ज्यां पाल सात्र की पुस्तक ‘नॉसिया’ बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। एक बार तुम जब इस अर्थहीन जीवन को, अतल खाई को देखते हो कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व संयोगवशात है, अनावश्यक है, एक दुर्घटना है , तुम सारी गरिमा खो देते हो। और तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो ? कुछ भी नहीं है प्रतीक्षा करने के लिए--सिवाय मृत्यु के। यह अत्याधिक व्यग्रता उत्पन्न करती है: "हमारा कोई मूल्य नहीं है... किसी को हमारी जरूरत नहीं है... अस्तित्व हमारी उपेक्षा कर रहा है।" उसी समय डी. टी. सुजूकी पश्चिम के क्षितिज में प्रकट हुए। वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पश्चिम में जाकर वहां के कालेजों और विश्वविद्यालयों में ‘झेन’ पर चर्चा की। उन्होंने वहां के बुद्धिजीवियों को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया चूंकि वे लोग परमात्मा पर विश्वास खो बैठे थे, वे लोग पवित्र बाइबल पर अपनी आस्था खो बैठे थे और उन्हें पोप पर भी कोई श्रद्धा नहीं रह गई थी। आज ही जर्मनी के लगभग एक दर्जन बिशपों ने एक साथ मिलकर यह घोषणा की है कि पोप अपनी सीमाओं के बाहर जाकर निरंतर ‘बर्थ-कंट्रोल’ के विरुद्ध जो उपदेश दे रहे हैं, वे मनुष्यता को एक ऐसे बिंदु पर ले गए हैं, जहां लगभग आधा विश्व निकट भविष्य में भूख से मरने जा रहा है, और अब पोप की बातों को सुनना ही नहीं चाहिए। अब यह विशुद्ध विद्रोह है। इन एक दर्जन बिशप ने जर्मनी में एक कमेटी का गठन किया और वे पोप के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए अपने पक्ष में अधिक से अधिक बिशप जुटा रहे हैं और यह घोषणा कर रहे हैं कि पोप भूल कर रहे हैं। पूरा इतिहास यह प्रदर्शित करता है कि पोप और बिशप लोग भ्रष्ट, (फालिबुल) हो सकते हैं, इसलिए यह पूरी सोच कि पोप से कभी कोई भूल होती ही नहीं, इसने उन्हें पूरा तानाशाह बना दिया है और अब यह सहन नहीं किया जा सकता। इस सदी का प्रारंभ ही, विशेष रूप से पश्चिम के समृद्ध देशों में, सभी पुराने धर्मों के विरुद्ध उबलती हुई ऊर्जा के साथ हुआ। निर्धन देशों के पास न तो इस सोच विचार के लिए कोई समय है, और न भरण पोषण के लिए पर्याप्त भोजन। उनका पूरा समय रोटी, कपडा और मकान की फिक्र में ही बीत जाता है। वे जीवन की महान समस्याओं के बारे में न तो सोच सकते हैं और न उस पर चर्चा कर सकते हैं। उनके सामने प्रश्न है भोजन का--परमात्मा का नहीं। इसीलिए निर्धन व्यक्ति बहुत आसानी से, केवल भोजन, नौकरी और मकान उपलब्ध करा देने भर से ईसाई बनाए जा सकते हैं। लेकिन ईसाई धर्म में उनका कोई रूपांतरण नहीं होता। न तो उनकी दिलचस्पी परमात्मा में होती है, न उनकी दिलचस्पी विश्वास करने की किसी व्यवस्था में होती है, उनके लिए मूलभूत समस्या केवल एक होती है कि वे भूखों मर रहे हैं। जब तुम भूखे और अभावग्रस्त हो, तो तुम परमात्मा के बारे में नहीं सोचते, और न तुम स्वर्ग और नर्क के बारे में सोचते हो। जो पहली चीज तुम सोचते हो, वह यह है कि कहीं से दाल रोटी का जुगाड. किया जाए । और यदि कोई व्यक्ति तुम्हें दाल रोटी और आश्रय इस शर्त पर देता है कि तुम्हें एक कैथलिक ईसाई बनना होगा तो तुम भूख से मरने की अपेक्षा ईसाई बनने को राजी हो जाओगे ।
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2010 |
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टिप्पणियाँ
शब्द सूचक :
होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।
होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।
होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।
होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।
आभार आप सभी पाठको का ....
सभी सुधि पाठको से निवेदन है कृपया २ सप्ताह से ज्यादा पुरानी पोस्ट पर टिप्पणिया न करे
और अगर करनी ही है तो उसकी एक copy नई पोस्ट पर भी कर दे
ताकि टिप्पणीकर्ता को धन्यवाद दिया जा सके
ओशो रजनीश