मोहम्मद ने कहा कि तू उठा सकता था पहला पैर भी, दायां भी उठा सकता था, कोई मजबूरी न थी। लेकिन अब चूंकि तू बायां उठा चुका इसलिए अब दायां उठाने में असमर्थता हो गई। आदमी की सीमाएं हैं। सीमाओं के भीतर स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता सीमाओं के बाहर नहीं है। तो बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिंतन का कि अगर आदमी पूरी तरह परतंत्र है, जैसा ज्योतिषी साधारणतः कहते हुए मालूम पड़ते हैं। साधारण ज्योतिषी कहते हुए मालूम पड़ते हैं कि सब सुनिश्चित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा। तो फिर सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी, बुद्धिवादी कहते हैं कि सब स्वच्छंद है, कुछ बंधा हुआ नहीं है, कुछ होने का निश्चित नहीं है, सब अनिश्चित है। तो जिंदगी एक केआस और एक अराजकता और एक स्वच्छंदता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं, हत्या करूं और परमात्मा मिल जाए। क्योंकि जब कुछ भी बंधा हुआ नहीं है और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और जब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है...। मुल्ला का फिर मुझे खयाल आता है। मुल्ला नसरुद्दीन एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है। और एक आदमी मस्जिद के ऊपर से गिर पड़ा। नमाज या अजान पढ़ने चढ़ा था मीनार पर, ऊपर से गिर पड़ा। मुल्ला के कंधे पर गिरा। मुल्ला की कमर टूट गई। अस्पताल में मुल्ला भर्ती किए गए, उनके शिष्य उनको मिलने गए। और शिष्यों ने कहा, मुल्ला, इससे क्या मतलब निकलता है? हाऊ डू यू इंटरप्रीट इट? इस घटना की व्याख्या क्या है? क्योंकि मुल्ला हर घटना से व्याख्या निकालता था। मुल्ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होता है कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी सैद्धांतिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई, कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है--वह इसके ऊपर सवार हो गया था ऊपर से--हम मर गए! न हम अजान पढ़ने चढ़े, न हम मीनार पर चढ़े। हम अपने घर लौट रहे थे, हमारा कोई संबंध ही न था। इसलिए, मुल्ला ने कहा, आज से सब सिद्धांत की बातचीत बंद! कुछ भी हो सकता है! कुछ भी हो सकता है, कोई कानून नहीं है, अराजकता है। नाराज था। स्वाभाविक था, उसकी कमर टूट गई थी। दो विकल्प सीधे रहे हैं। एक विकल्प तो यह है कि ज्योतिषी साधारणतः जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्योतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्योतिषी हो और चाहे मोरारजी देसाई का ज्योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क छाप ही है ज्योतिषी, जिससे कोई नॉन एसेंशियल पूछने जाता है कि इलेक्शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे? जैसे कि आपके इलेक्शन से चांदत्तारों का कोई लेना-देना है। वह कहता है, सब बंधा हुआ है; कुछ इंच भर यहां-वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है। और दूसरी तरफ तर्कवादी है, बुद्धिवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है, सांयोगिक है, चांस है, कोइंसीडेंस है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां नियम है। क्योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरह आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी धर्म और ईश्वर को और आत्मा को तर्क से इनकार तो कर लेता है, लेकिन कभी महावीर की प्रसन्नता को उपलब्ध नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते हैं जिससे उनकी प्रसन्नता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते हैं जिससे उनकी समाधि निकलती है। और कृष्ण कुछ करते हैं जिससे उनकी बांसुरी के स्वर अलग हैं। स्थिति तीसरी है। और तीसरी स्थिति यह है कि जो बिलकुल सारभूत है, जो अंतरतम है, वह बिलकुल सुनिश्चित है। जितना हम अपने केंद्र की तरफ आते हैं उतना निश्चय के करीब आते हैं। जितना हम अपनी परिधि की तरफ, सरकमफेरेंस की तरफ जाते हैं, उतना संयोग के करीब जाते हैं। जितना हम बाहर की घटना की बात कर रहे हैं उतनी सांयोगिक बात है। जितनी हम भीतर की बात कर रहे हैं उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्चित बात हो जाती है। दोनों के बीच में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते हैं। जहां जानने वाला आदमी विकल्प चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्य है। जो अंधेरा, जो संयोग उसको पकड़ा देता है। तीन बातें हुईं। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्चित है। उसे जानना सारभूत ज्योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है जहां सब अनिश्चित है। उसे जानना व्यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र है जो दोनों के बीच में है। उसे जान कर आदमी, जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है, जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर और परिधि और केंद्र के मध्य में आदमी इस भांति जीये कि केंद्र पर पहुंच पाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जीये कि केंद्र पर कभी न पहुंच पाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है। जैसे एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी, ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा, दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुश्किल हो जाएगा। करने के बाद बचना मुश्किल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्यक्तित्व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित्त डोल रहा है। अगर वह न कर दे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है। तो उस ज्योतिष की तरफ, जो हमारे जीवन का सारभूत है, कुछ बातें मैंने कही हैं। आज मैंने एक बात आपसे कही और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ हैं। सूर्य से जन्मती है पृथ्वी, पृथ्वी से जन्मते हैं हम। हम अलग नहीं हैं, हम जुड़े हैं। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्ते हैं। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह हमारे पत्तों के रोएं-रोएं, रेशे-रेशे तक फैल जाता है और कंपित कर जाता है। यदि यह खयाल में हो तो हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्ध हो सकते हैं। तब हमें स्वयं की अस्मिता और अहंकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है। और ज्योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्योतिष गलत है तो फिर अहंकार के अतिरिक्त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्योतिष सही है तो जगत सही है और मैं गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं, एक हिस्सा ही हूं; और कितना नाचीज टुकड़ा, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती। अगर ज्योतिष सही है तो मैं नहीं हूं; शक्तियों का एक प्रवाह है, उसी में एक छोटी लहर मैं हूं। किसी बड़ी लहर पर सवार कभी-कभी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं भी हूं। वह बड़ी लहर का खयाल नहीं रह जाता, और बड़ी लहर भी किसी सागर पर सवार है उसका तो बिलकुल खयाल नहीं रह जाता। नीचे से सागर हाथ अलग कर लेता है, बड़ी लहर बिखरने लगती है; बड़ी लहर बिखरती है, मैं खो जाता हूं। अकारण दुख ले लेता हूं कि मिट रहा हूं, क्योंकि अकारण मैंने सुख लिया था कि हूं। अगर उसी वक्त देख लेता कि मैं नहीं हूं, बड़ी लहर है, बड़ा सागर है। सागर की मर्जी उठता हूं, सागर की मर्जी खो जाता हूं। अगर ऐसी भाव-दशा बन जाती कि अनंत की मर्जी का मैं एक हिस्सा हूं, तो कोई दुख न था। हां, वह तथाकथित सुख भी फिर नहीं हो सकता जो हम लेते रहते हैं। मैंने जीता, मैंने कमाया, वह सुख भी नहीं रह जाएगा। वह दुख भी नहीं रह जाएगा कि मैं मिटा, मैं बर्बाद हुआ, मैं टूट गया, मैं नष्ट हो गया, हार गया, पराजित हुआ, वह दुख भी नहीं रह जाएगा। और जब ये दोनों सुख और दुख नहीं रह जाते हैं तब हम उस सारभूत जगत में प्रवेश करते हैं जहां आनंद है। ज्योतिष आनंद का द्वार बन जाता है, अगर हम ऐसा देखें कि वह हमारी अस्मिता को गलाता है, हमारा अहंकार बिखेरता है, हमारी ईगो को हटा देता है। लेकिन जब हम बाजार में सड़क पर ज्योतिषी के पास जाते हैं तो अपने अहंकार की सुरक्षा के लिए पूछने, कि घाटा तो नहीं लगेगा? यह लाटरी मिल जाएगी? नहीं मिलेगी? यह धंधा हाथ में लेते हैं, सफलता निश्चित है? अहंकार के लिए हम पूछने जाते हैं। और मजा यह है कि ज्योतिष पूरा का पूरा अहंकार के विपरीत है। ज्योतिष का अर्थ ही यह है कि आप नहीं हो, जगत है। आप नहीं हो, ब्रह्मांड है। विराट शक्तियों का प्रभाव है, आप कुछ भी नहीं हो। इस ज्योतिष की तरफ खयाल आए, और वह तभी आ सकता है जब हम इस विराट जगत के बीच अपने को एक हिस्से की तरह देखें। इसलिए मैंने कहा कि सूर्य से किस भांति यह सारा का सारा संयुक्त और जुड़ा हुआ है। अगर सूर्य से हमें पता चल जाए कि हम जुड़े हुए हैं तो फिर हमको पता चलेगा कि सूर्य और महासूर्यों से जुड़ा हुआ है। कोई चार अरब सूर्य हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि इन सभी सूर्यों का जन्म किसी महासूर्य से हुआ है। अब तक हमें उसका कोई अंदाज नहीं वह कहां होगा। जैसे पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और साथ ही सूरज का चक्कर लगाती है, ऐसे ही सूरज अपनी कील पर घूमता है और किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है। उस बिंदु का ठीक-ठीक पता नहीं है कि वह बिंदु क्या है जिसका सूरज चक्कर लगा रहा है। विराट चक्कर जारी है। जिस बिंदु का सूरज चक्कर लगा रहा है वह बिंदु और सूरज का पूरा का पूरा सौर परिवार भी किसी और महाबिंदु के चक्कर में संलग्न है। मंदिरों में परिक्रमा बनी है। वह परिक्रमा इसका प्रतीक है कि इस जगत में सारी चीजें किसी की परिक्रमा कर रही हैं। प्रत्येक अपने में घूम रहा है और फिर किसी की परिक्रमा कर रहा है। फिर वे दोनों मिल कर किसी और बड़े की परिक्रमा कर रहे हैं। फिर वे तीनों मिल कर और किसी की परिक्रमा कर रहे हैं। वह जो अल्टीमेट है जिसकी सभी परिक्रमा कर रहे हैं, उसको ज्ञानियों ने ब्रह्म कहा है--उस अंतिम को, जो किसी की परिक्रमा नहीं कर रहा है, जो अपने में भी नहीं घूम रहा है और किसी की परिक्रमा भी नहीं कर रहा है। ध्यान रखें, जो अपने में घूमेगा वह किसी की परिक्रमा जरूर करेगा। जो अपने में भी नहीं घूमेगा वह फिर किसी की परिक्रमा नहीं करता। वह शून्य और शांत है। वह धुरी, वह कील जिस पर सारा ब्रह्मांड घूम रहा है, जिससे सारा ब्रह्मांड फैलता है और सिकुड़ता है। हिंदुओं ने तो सोचा है कि जैसे कली फूल बनती है, फिर बिखर जाती है; ऐसे ही यह पूरा जगत खिलता है, फैलता है, एक्सपैंड होता है, फिर प्रलय को उपलब्ध हो जाता है। जैसे दिन होता है और रात होती है, ऐसे ही सारे जगत का दिन है और फिर सारे जगत की रात हो जाती है। जैसा मैंने कहा कि ग्यारह वर्ष की एक लय है, नब्बे वर्ष की एक लय है। ऐसा हिंदू विचार का खयाल है कि अरबों-खरबों वर्ष की भी एक लय है। उस लय में जगत उठता है, जवान होता है। पृथ्वियां पैदा होती हैं, चांदत्तारे फैलते हैं, बस्तियां बसती हैं। लोग जन्मते हैं, करोड़ों-करोड़ों प्राणी पैदा होते हैं। और कोई एक अकेली पृथ्वी पर हो जाते हैं, ऐसा नहीं। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन होना चाहिए, कम से कम! यह मिनिमम है, इतना तो होगा ही, इससे ज्यादा हो सकता है। इतने बड़े विराट जगत में अकेली पृथ्वी पर जीवन हो, यह संभव नहीं मालूम होता। पचास हजार ग्रहों पर, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। अनंत फैलाव है। फिर सब सिकुड़ जाता है। यह पृथ्वी सदा नहीं थी, यह सदा नहीं होगी। जैसे मैं सदा नहीं था, सदा नहीं होऊंगा। वैसे ही यह पृथ्वी सदा नहीं थी, सदा नहीं होगी। यह सूरज भी सदा नहीं था, सदा नहीं होगा। ये चांदत्तारे भी सदा नहीं थे, सदा नहीं होंगे। इनके होने और न होने का वर्तुल घूमता रहता है। उस विराट पहिए में हम भी कहीं एक पहिए की किसी धुरी पर न होने जैसे कहीं हैं। और अगर हम सोचते हों कि हम अलग हैं तो हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे कोई आदमी ट्रेन में बैठा हो...। मैंने सुना है कि एक आदमी एक हवाई जहाज में सवार हुआ। और जल्दी पहुंच जाए इसलिए तेजी से हवाई जहाज के भीतर चलने लगा--जल्दी पहुंच जाने के खयाल से! स्वाभाविक तर्क है कि अगर जल्दी चलिएगा तो जल्दी पहुंच जाइएगा। यात्रियों ने उसे पकड़ा और कहा कि आप क्या कर रहे हैं? उसने कहा कि मैं थोड़ा जल्दी में हूं। जमीन पर उसका जो तर्क था--वह पहली दफे ही हवाई जहाज में सवार हुआ था--जमीन पर वह जानता था कि जल्दी चलिए तो जल्दी पहुंच जाते हैं। हवाई जहाज पर भी वह जल्दी चल रहा था, इसका बिना खयाल किए कि उसका चलना अब इररेलेवेंट है, अब असंगत है। अब हवाई जहाज चल ही रहा है। वह चल कर सिर्फ अपने को थका ले सकता है; जल्दी नहीं पहुंचेगा, यह हो सकता है कि पहुंचते-पहुंचते इतना थक जाए कि उठ भी न पाए। उसे विश्राम कर लेना चाहिए। उसे आंख बंद करके लेट जाना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं जो इस जगत की विराट गति के भीतर विश्राम को उपलब्ध है। जो जानता है कि विराट चल रहा है, जल्दी नहीं है। मेरी जल्दी से कुछ होगा नहीं। अगर मैं इस विराट की लयबद्धता में एक बना रहूं, वही काफी है, वही आनंदपूर्ण है। ज्योतिष के लिए मैं इसीलिए आपसे इतनी बातें कहा हूं। यह खयाल में आ जाए तो ज्योतिष आपके लिए अध्यात्म का द्वार सिद्ध हो सकता है।
प्रकाशक :
ओशो रजनीश
| बुधवार, मार्च 17, 2010 |
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